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मिनी पंजाब के नाम से मशहूर है ये देश, जानें Canada में सिखों का प्रवास के शुरूआत की कहानी

कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने शुक्रवार यानी 22 सितंबर को बड़ा बयान देते हुए भारत को भी बड़ा झटका दिया है। हाल ही में जी20 शिखर सम्मेलन से हिस्सा लेकर कनाडा लौटे जस्टिन ट्रूडो ने कहा कि खालिस्तान समर्थक नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारतीय एजेंटी की संलिप्तता देखने को मिली है।
 
उन्होंने कहा कि उनकी सरकार ने कई हफ्ते पहले खालिस्तान समर्थक नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारतीय एजेंटों की संलिप्तता के बारे में “विश्वसनीय आरोपों” के सबूत भारत के साथ साझा किए हैं। जस्टिन ट्रूडो द्वारा भारत सरकार और इस साल की शुरुआत में कनाडा में निज्जर की हत्या के बीच “संभावित संबंध” का आरोप लगाने के बाद 19 सितंबर को कनाडा और भारत के बीच राजनयिक गतिरोध पैदा हो गया। कनाडा को जवाब देते हुए नई दिल्ली ने ओटावा पर “खालिस्तानी आतंकवादियों और चरमपंथियों” को शरण देने का आरोप लगाया। इस घटना के बाद एक बार फिर कनाडा में सिख प्रवासी लोग सुर्खियों में आ गए है।
 
वर्ष 2021 में की गई कनाडा जनगणना के मुताबिक कनाडा की आबादी में सिखों की हिस्सेदारी 2.1% है। भारत के बाहर कनाडा सबसे बड़ी सिख आबादी वाला देश है। वैसे यह संख्या कोई बड़ा आंकड़ा नहीं है। गौरतलब है कि एक सदी से भी अधिक समय से सिख समुदाय की कई लोगों कनाडा में रह रहे हैं। लेकिन सिख लोगों ने कनाडा जाने का फैसला क्यों किया और कनाडा में आने वाली पहले सिख कौन थे। इसके साथ यह भी जाना जरूरी है कि सिखों को कनाडा में किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। 
 
यूनिवर्सिटी ऑफ़ लंदन की स्कूल आफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज के एमेरिटस प्रोफेसर को हर्बल सिंह ने थे न्यू यॉर्कर पत्रिका को बताया कि 19वीं सदी के अंत में सिखों ने विदेशों में प्रवास करना शुरू किया था। सिख लोग ब्रिटिश साम्राज्य के लिए सशस्त्र सेवाओं में भी शामिल थे। उन्होंने बताया कि जहां भी ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार हुआ जैसे पूर्वी चीन, सिंगापुर, फिजी, मलेशिया या पूर्वी अफ्रीका इन सभी इलाकों में सिखों को पहुंचाया गया।
 
अगर कनाडा में सिखों के आने की बात की जाए तो वर्ष 1897 में महारानी विक्टोरिया की डायमंड जुबली के दौरान सिखों का यहां आना शुरू हुआ। ब्रिटिश भारत सेवा में एक मेजर केसूर सिंह कनाडा जाने वाला पहला सिख निवासी माना जाता है। जानकारी के मुताबिक की सूर्य सिंह हांगकांग रेजीमेंट में था। हालाँकि, कनाडा में सिख प्रवास की पहली लहर 1890 के दशक के शुरुआती वर्षों में शुरू हुई थी। माना जाता है कि अधिकतर प्रवासी सिख मजदूर के तौर पर कनाडा गए थे। उनका मुख्य काम ब्रिटिश कोलंबिया में काम करना और ओंटारियो में विनिर्माण करना हुआ करता था।
 
शुरुआती तौर पर माना जाता था कि सिखों का प्रवासन काफी छोटा हुआ करता था यानी कनाडा सिर्फ रोजगार की तलाश में ही सिख जाते थे उनका वहां बचाने का कोई इरादा नहीं था। शुरुआत में इनका इरादा यह होता था कि वह तीन से पांच वर्षों  तक ये कनाडा में रहे और वहां से होने वाली अधिक से अधिक कमाई को अपने घर भेजें। 
 
कनाडा में रहने के दौरान प्रवासियों को वहां काम बेहद आसानी से मिलने लगा। इसके बाद स्थानीय लोगों की नफरत का भी उन्हें सामना करना पड़ा क्योंकि स्थानीय लोगों की नौकरियां छिनने लगी थी। सिखों को कई बार नस्लीय और सांस्कृतिक पूर्वाग्रह का भी सामना करना पड़ा। इसके अलावा जब कनाडा में सिखों की संख्या काफी अधिक हो गई तो स्थिति भी काफी बिगड़ने लगी। इसी बीच जब कनाडा में सिखों के कारण स्थिति खराब होने लगी तो कनाडा की सरकार ने कड़े नियम लागू किया और सिखों के प्रवासन को खत्म कर दिया। सरकार ने कनाडा आने वालों से $200 वसूलने शुरू कर दिए। इस कारण कनाडा आने वालों की संख्या में काफी गिरावट देखने को मिली। 1908 के बाद से भारत से कनाडा में प्रवासन मैं भारी गिरावट देखने को मिली।
 
इसी दौरान कोमागाटा मारू घटना घटी। 1914 में, एक जापानी स्टीमशिप, जिसे कोमागाटा मारू के नाम से जाना जाता था, वैंकूवर के तट पर पहुंचा। इसमें 376 दक्षिण एशियाई यात्री सवार थे, जिनमें से अधिकांश सिख थे। आप्रवासियों को लगभग दो महीने तक जहाज पर हिरासत में रखा गया, और फिर कनाडाई जल क्षेत्र से बाहर निकालकर एशिया वापस भेज दिया गया। कैनेडियन म्यूज़ियम ऑफ़ ह्यूमन राइट्स के अनुसार, एक बार जब जहाज भारत पहुंचा, तो ब्रिटिश अधिकारियों और यात्रियों के बीच विवाद शुरू हो गया। अधिकारियों को संदेह था कि यात्री क्रांतिकारी थे और गड़बड़ी करने आ रहे थे। जब विवाद समाप्त हुआ, तो “16 यात्रियों सहित 22 लोग मारे गए।”
 
जानकारी के मुताबिक द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद कनाडा की आप्रवासन नीति में ढील दी गई। ऐसा तीन मुख्य कारणों से हुआ था। दरअसल संयुक्त राष्ट्र में शामिल होने और नस्लीय भेदभाव के खिलाफ इसकी घोषणा और समान भागीदारों के बहु-नस्लीय राष्ट्रमंडल में सदस्यता के बाद कनाडा के लिए नस्लीय प्राथमिकताओं के आधार पर एक आव्रजन नीति और अभ्यास को बनाए रखना मुश्किल हो गया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कनाडा ने अपनी अर्थव्यवस्था का विस्तार करना शुरू कर दिया जिसके लिए उसे मजदूरों की आवश्यकता थी। यूरोप से लोगों के आप्रवासन में गिरावट आई और कनाडाई सरकार ने ‘मानव पूंजी के आयात’ के लिए तीसरी दुनिया के देशों की ओर रुख किया। कनाडा की सरकार ने वर्ष 1967 में ‘अंक प्रणाली’ की शुरुआत की, जिसने देश में गैर-आश्रित रिश्तेदारों के प्रवेश के लिए केवल कौशल को मानदंड बनाया और एक विशेष जाति को दी गई किसी भी प्राथमिकता को समाप्त कर दिया।

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