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भारत और यूरोप के बीच समुद्री व्यापार मार्ग के पीछे है प्राचीन इतिहास

जी20 शिखर सम्मेलन में भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारा बनाए जाने का ऐलान हुआ है। भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारे (आईएमईसी) के वैश्विक महत्व पर जोर देते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इसे अमेरिका के लिए एक बड़ा सौदा और गेम-चेंजिंग निवेश के रूप में पेश किया। 
 
भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारा रोमन साम्राज्य के बीच एक प्राचीन व्यापार मार्ग होने का संकेत देता है। इस भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारे का अस्तित्व आम युग की शुरुआती शताब्दियों में चरम पर था। लंबे समय से कहा गया है कि ये सिल्क रोड का ग्रहण करेगा। वहीं हाल ही में हुए ऐलान के बाद भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारा बनाए जाने को मजबूती मिली है। इसी दिशा में राइटर विलियम डेलरिम्पल ने भी पुस्तक लिखी है, ‘द गोल्डन रोड’ जो इस विषय पर विस्तार से प्रकाश डालती है। विलियम डेलरिम्पल ने बताया कि प्राचीन लाल सागर व्यापार मार्ग, चीन से भूमिगत मार्ग की तुलना में बहुत बड़ा और ऐतिहासिक रूप से अधिक महत्वपूर्ण है।
 
प्राचीन लाल सागर व्यापार मार्ग के बारे में हम क्या जानते हैं?
ये सर्वविदित है कि भारत और रोम के बीच प्राचीन काल से ही व्यापारिक रिश्ते रहे है। वर्षों से रोम और भारत के बीच व्यापार होता आया है। सर मोर्टिमर व्हीलर 1930 और 40 के दशक में आधुनिक पांडिचेरी के दक्षिण में अरिकामेडु में खुदाई कर रहे थे और पहली शताब्दी ईस्वी में इंडो-रोमन व्यापार के अस्तित्व की स्थापना की थी। हालाँकि, उन्होंने भारत में व्यापार करने वाले रोमन व्यापारियों के संदर्भ में अपने निष्कर्षों की गलत व्याख्या की। वह भारतीय व्यापारियों और जहाज मालिकों को इस व्यापार में कोई एजेंसी देने में विफल रहे, जो निस्संदेह उनके पास थी। 
 
नवीनतम अनुमानों के अनुसार भारत, फारस और इथियोपिया के साथ लाल सागर व्यापार पर सीमा शुल्क से रोमन राजकोष की आय का एक तिहाई हिस्सा उत्पन्न हो सकता है। इसका मुख्य स्रोत मुजिरिस पेपिरस है जो कि एक दस्तावेज है। इसे केरल के तट पर सुदूर मुजिरिस में स्थित एक भारतीय व्यापारी से सामान की खरीद के लिए अलेक्जेंड्रिया स्थित मिस्र-रोमन फाइनेंसर ने निकाला है। मुजिरिस से मिस्र के बेरेनिके बंदरगाह पर भेजे गए माल का विवरण भी पपीरस हर्मापोलोन जहाज मिलता है। 
 
जानकारी के मुताबिक इस सामान की कुल मूल्य इतना है कि ये मिस्र में 2400 एकड़ की सबसे अच्छी कृषि भूमि खरीदने के लिे पर्याप्त धन है। या मध्य इटली में प्रीमियम संपत्ति भी इस कीमत में खरीदी जा सकती है। एक व्यापारिक जहाज स्पष्ट रूप से ऐसी कई खेपें ले जा सकता है, जिनमें से प्रत्येक की कीमत बहुत कम होगी।
 
ऐसे माल से रोमन साम्राज्य कितना कमाता होगा?
मुज़िरिस पेपिरस के अनुसार, लगभग नौ मिलियन सेस्टर्स के कार्गो पर भुगतान किया गया आयात कर दो मिलियन सेस्टर्स से अधिक था। इन आँकड़ों के आधार पर पहली शताब्दी ईसा पूर्व तक मिस्र में भारतीय आयात मूल रूस से प्रति वर्ष एक अरब सेस्टर्स से अधिक का था, जिससे रोमन साम्राज्य के कर अधिकारी 270 मिलियन से कम कोई लाभ नहीं ले रहे थे। ये विशाल राजस्व संपूर्ण विषयगत देशों से अधिक था: जूलियस सीज़र ने गॉल में अपनी विजय के बाद 40 मिलियन सेस्टर्स की ट्रिब्यूट दी। वहीं राइनलैंड सीमा की रक्षा 88 मिलियन सेस्टर्स की वार्षिक लागत पर आठ सेनाओं ने की थी।
 
अगर मुज़िरिस पेपिरस पर दिए गए आंकड़े सही थे तो लाल सागर के माध्यम से होने वाले व्यापार पर लगाए गए कस्टम कर अकेले पूरे राजस्व का लगभग एक-तिहाई हिस्सा कवर करते। रोमन साम्राज्य को ये ही चाहिए था। रोमन साम्राज्य अपनी वैश्विक विजयों का प्रबंधन करने और स्कॉटलैंड के तराई क्षेत्र से लेकर फारस की सीमाओं तक और सहारा से लेकर राइन और डेन्यूब के तटों तक अपनी विशाल सेनाओं को बनाए रखने में जुटा था। जब मार्ग का उपयोग पहली और दूसरी सदी के दौरान चरम पर था तो लाल सागर के जरिए रोमन साम्राज्य और भारत को जोड़ने वाला समुद्री राजमार्ग था। इस मार्ग से हर वर्ष सैंकड़ों जहाज दोनों दिशाओं में यात्रा करते थे।
 
इस मार्ग पर क्या व्यापार हो रहा था?
पूरे रोमन साम्राज्य में भारत से विलासिता की वस्तुओं की भारी माँग थी। मैलाबाथ्रम नामक दालचीनी जैसे पौधे की पत्तियों को दबाकर इत्र बनाया जाता था। इसके अलावा हाथी दाँत, मोती और बहुमूल्य रत्नों तक की काफी अधिक मांग थी। दरअसल शहर में एक दुकान थी जो स्पष्ट रूप से हाथीदांत उत्पादों के अलावा कुछ नहीं बेचती थी। हाथी और बाघ जैसे जंगली जानवरों जैसे “विदेशी” सामानों की भी मांग थी। यहां मसालों की भी भारी मांग थी।
 
आंकड़ों के अनुसार भारत का अब तक का सबसे बड़ा निर्यात काली मिर्च था। इसकी बड़ी मात्रा बेरेनिके में खुदाई के दौरान पाई गई थी। बता दें कि इसकी जानकारी खुदाई के दौरान मिली है। खुदाई में मिट्टी के बर्तनों के जार जो लगभग 10 किलोग्राम से भी अधिक के वजन के थे। वास्तव में पहली शताब्दी के अंत तक भारतीय काली मिर्च लगभग उतनी ही आसानी से उपलब्ध हो गई जितनी आज है। एपिसियस की रोमन रसोई की किताब में शामिल 478 व्यंजनों में से लगभग 80 प्रतिशत में काली मिर्च शामिल थी। हालांकि इसका उपयोग करना काफी महंगा पड़ता रहा।
 
रोम से भारत तक व्यापार के बारे में जानें
दूसरी दिशा में माल का प्रवाह काफी सीमित था। रोमन इतिहासकार प्लिनी द एल्डर (23-79 सीई) का कहना है कि मुख्य रूप से सोना भारत जाता था, जो रोमन अर्थव्यवस्था के लिए एक समस्या थी क्योंकि व्यापार संतुलन दृढ़ता से भारत के पक्ष में था। ये रिकॉर्ड भी मिले हैं कि भारतीयों को रोमन वाइन का भी अधिक शौक था। इस कड़ी में नील नदी पर मिस्र के पुरातात्विक स्थल ऑक्सीरहाइन्चस में कई टुकड़ों में यूरिपिड्स के नाटक, इफेजेनिया अमंग द टॉरियंस का स्थानीय रूप से पुनर्लिखित संस्करण था। ये भी जानना जरुरी है कि उनके मुताबिक भारतीय अजीब भाषा बोलते है। भारतीयों को अस्पष्ट वाणी से पहचाना जाता है। जैतून के तेल और गारम (एक प्राचीन रोमन मछली का पेस्ट) जैसे उस समय का टबैस्को या गरम मसाला का भी व्यापार होता था, जिसके प्रमाण अरिकामेडु और केरल के स्थलों में पाए गए हैं।
 
क्या सामान्य युग से पहले इस मार्ग पर व्यापार होता था?
मेलुहा (सिंधु घाटी सभ्यता, लगभग 3300-1300 ईसा पूर्व) के समय में इस रास्ते पर व्यापार होने के पुख्ता सबूत मिले है। इस दौरान भी मध्य पूर्व में भारतीय प्रवासी के साक्ष्य हैं। हालांकि इन साक्ष्यों से लगता है कि ये तटीय अधिक है। इसमें व्यापार कम मात्रा में होने की संभावना अधिक शामिल है। वहीं रोमन काल के दौरान ये व्यापार उपमहाद्वीप और रोमन साम्राज्य के बीच सीधे चलने वाले विशाल मालवाहक जहाजों के साथ फैल गया। रोमनों ने व्यापार का ‘औद्योगीकरण’ किया। आंकड़ों के मुताबिक रोमनों द्वारा मिस्र पर विजय प्राप्त करने के बाद पहली और दूसरी शताब्दी में व्यापार में तेजी आई, जिससे रोमन व्यापारियों के लिए रास्ता खुला। ये इतने साहसी थे कि वे इसे पार करके भारत का रास्ता बनाने की कोशिश कर रहे थे।
 
व्यापार कितना व्यवस्थित था, और एक सामान्य यात्रा में कितना समय लगता था?
साक्ष्य इस बात की ओर इशारा करते हैं कि व्यापार अत्यधिक संगठित था। केरल में व्यापारियों और आने वाले यात्रियों के बीच अनुबंध हुए थे। उस समय भी आज की तरह ही सामान को कंटेनरों में भेजा जाता था। इस दौरान कंटेनर बुक होता था जिसे हाथी दांत से भरा जाता था। इस दौरान बीमा भी करवाए जाते थे, जिससे साफ होता है कि ये अत्यधिक परिष्कृत व्यापार नेटवर्क था। भारतीयों को यह समझ में जल्दी आ गया कि तिब्बती पठार के गर्म होने का मतलब है कि मानसूनी हवाएँ सर्दियों में एक दिशा में और गर्मियों में दूसरी दिशा में चलती हैं। समुद्री रास्ते का अधिक लाभ उठाने के लिए भारतीयों ने हरवा के रुख को समझा था। यानी पीछे की हवाओं के साथ लगभग छह से आठ सप्ताह में मिस्र जाना संभव था और इसी दौरान वापस भी आ सकते थे। हवा का रुख बदलने के लिए कुछ महीनों का इंतजार करना होता था। इस इंतजार का ही कारण है कि भारतीय प्रवासियों के मिस्र के बंदरगाहों में मकान किराए पर लेने और कुछ समय के लिए देश में रहने के प्रमाण हैं। 
 
इस व्यापार में भारतीयों की क्या भूमिका थी?
भारतीयों और कई भारतीय राजवंशों को समुद्री यात्रा में बहुत रुचि थी। कई प्रारंभिक भारतीय सिक्कों में जहाजों के चित्र होना काफी आम था। ये प्रमाण भी मिले हैं कि भारतीय नाविक भी व्यापार में प्रमुखता से शामिल होते थे। इस अवधि के भारतीय नाविकों (ज्यादातर बारिगाजा, आधुनिक भरूच के गुजराती) द्वारा छोड़े गए भित्तिचित्र हाल ही में सोकोट्रा द्वीप पर होक गुफाओं में पाए गए हैं, जो अदन की खाड़ी के मुहाने पर एक लोकप्रिय पड़ाव है।
 
यहां के 219 शिलालेखों में से दूसरी से पांचवीं शताब्दी ईस्वी तक के 192 भारतीय ब्राह्मी लिपि में हैं। इन शिलालेखों को भारतीय नाम भी दिए गए है। कई स्थानों पर बौद्ध स्तूप, शैव त्रिशूल, स्वस्तिक, सीरियाई ईसाई क्रॉस और तीन मस्तूल वाले बड़े भारतीय जहाजों की तस्वीरें है। इसके अलावा राधा कृष्णा की तस्वीरें भी देखने को मिलती है। 

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