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एक अक्टूबर को सिर्फ एक ही चरण में हरियाणा की सभी 90 विधानसभा सीटों के लिए होना है। जिसको लेकर, राज्य में दोबारा उभर रही कांग्रेस से सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) मुकाबला करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। चुनाव में तीसरे खिलाड़ी के रूप में जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) अपनी स्थिति बरकरार रखने की कोशिश कर रही है। इस चुनाव में आम आदमी पार्टी (आप) भी एक खिलाड़ी के रूप में उभरने के लिए प्रयासरत है। हालांकि, दोनों प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों के बीच तीखे धुव्रीकरण की संभावना दिख रही है। भारतीय जनता पार्टी को हरियाणा में दोहरी सत्ता-विरोधी लहर से निपटना होगा क्योंकि वह पिछले 10 साल से राज्य और केंद्र दोनों जगह सत्ता में है।
इन प्रतिकूल हवाओं से बेखबर बीजेपी ने आम चुनाव से पहले मार्च में मनोहर लाल खट्टर को हटाकर नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाया है। मुख्यमंत्री सैनी अपने पूर्ववर्ती सरकार के कई निर्णयों को पलटकर और नयी योजनाओं का एलान कर, विभिन्न हित समूहों को शांत करने का प्रयास कर रहे हैं। अपने अधिकारों में कटौती का कड़ा विरोध कर रहे सरपंचों की ग्राम पंचायतों के लिए खर्च सीमा 5 लाख से बढ़ाकर 21 लाख रुपये कर दी गयी है। सीएम सैनी ने लोगों की शिकायतों के निवारण के लिए विशेष कैंप, या ‘समाधान शिविर’, आयोजित किये हैं। इसके अलावा भी 1.20 लाख ठेका कर्मचारियों के लिए नौकरी की सुरक्षा सेवानिवृत्ति की उम्र तक सुनिश्चित की गयी है।
खट्टर ने ओबीसी के लिए क्रीमीलेयर की दर वार्षिक आय घटाकर छह लाख रुपये कर दी थी। जिसे दोबारा बाद में आठ लाख रुपये कर दिया गया है। हरियाणा सरकार की विभिन्न नौकरियों में अग्निवीरों के लिए 10 फीसदी आरक्षण और फसलों के लिए विस्तारित न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था का वादा किया गया है। हरियाणा में जाटों और गैर-जाटों के बीच बुनियादी सामाजिक दरार ने पिछले दो विधानसभा चुनावों में भाजपा के पक्ष में काम किया। लेकिन भाजपा का बहु-जातीय गठबंधन 2019 के विधानसभा चुनाव तक कमजोर पड़ना शुरू हो गया था। बीते पांच सालों में किसान आंदोलन और अग्निपथ योजना ने इसे और कमजोर किया है।
इसके अलावा, पार्टी अपने खेमे के भीतर बहुत सारी प्रतिद्वंद्विताओं में फंसी हुई है। खुद विधानसभा में पार्टी के बहुमत पर सवालिया निशान लगा हुआ है। कांग्रेस इन सबको भुनाने और अपनी किस्मत पलटने की उम्मीद कर रही है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस के चुनाव अभियान का नेतृत्व संभाल रहे पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा ने पार्टी को अपने पीछे एकजुट कर लिया है। उनका फोकस बेरोजगारी और कृषि क्षेत्र में संकट पर है। कांग्रेस को अब भी यह सुनिश्चित करना है कि उसके गुटीय नेता अंत तक एकजुट बने रहें। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हालांकि पिछले 10 साल के न्यूनतम स्तर पर है, लेकिन यह अब भी पार्टी के मंसूबों में पलीता लगा सकता है। लोकप्रियता में गिरावट के बावजूद, भाजपा लोकसभा चुनाव में पूरी तरह उखड़ने से बचने में सफल रही। कांग्रेस और भाजपा में 10 लोकसभा सीटें बराबर-बराबर बंटीं, जबकि कांग्रेस ने राज्य भर में अपना मत प्रतिशत बढ़ाया। हरियाणा के नतीजे का असर कांग्रेस और भाजपा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पड़ेगा।