नयी दिल्ली। वर्ष 2003 में सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के एक अभियान में आतंकवादी गाजी बाबा के मारे जाने के बाद आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद लगभग नेतृत्व हीन हो गया था। बीएसएफ के इस अभियान पर बनी एक एक्शन फिल्म रिलीज के लिए तैयार है। इस अभियान के लिए अर्धसैनिक बल को दो सैन्य अलंकरणों सहित एक दर्जन वीरता पदक भी मिले थे। यह अभियान 1965 में गठित बीएसएफ के आधिकारिक इतिहास की किताब में अंकित हो गया है। बीएसएफ का मुख्य कार्य देश की आंतरिक सुरक्षा के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के कर्तव्यों का निर्वहन करने के अलावा पाकिस्तान और बांग्लादेश से लगी भारतीय सीमा की रक्षा करना है।
ग्राउंड जीरो नामक एक हिंदी फिल्म इस अभियान और उस समय के सर्वाधिक वांछित आतंकवादियों में से एक को मार गिराने वाले बीएसएफ के बहादुर अधिकारियों और जवानों के कारनामों पर आधारित है। यह फिल्म 25 अप्रैल को सिनेमाघरों में रिलीज होगी। अभिनेता इमरान हाशमी ने फिल्म में बीएसएफ के दूसरे नंबर के अधिकारी नरेन्द्र नाथ धर दुबे की भूमिका निभाई है, जिन्होंने आतंकवादी गाजी बाबा को मार गिराने के अभियान का नेतृत्व किया था।
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बीएसएफ ने राणा ताहिर नदीम उर्फ गाजी बाबा की तलाश उस दिन से ही शुरू कर दी थी, जब दिसंबर 2001 में जैश-ए-मोहम्मद ने भारतीय संसद पर हमला किया था। बीएसएफ के इतिहास के बारे में लिखी गयी 319 पृष्ठों की इस पुस्तक के मुताबिक अपनी लगातार खुफिया जानकारी और निगरानी प्रयासों के कारण, बल को 29 अगस्त 2003 को इस आतंकवादी के बारे में जानकारी मिल गई। इस पुस्तक को 2015 में बीएसएफ द्वारा अपनी 50वीं वर्षगांठ पर जारी किया गया था।
बीएसएफ के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि जिस अवधि के दौरान यह अभियान चलाया गया, उस दौरान बीएसएफ कश्मीर घाटी में आतंकवाद रोधी अभियानों के लिए तैनात थी और इसकी महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध जी शाखा (खुफिया शाखा) को अद्भुत परिणाम और उच्च श्रेणी की जासूसी सूचनाएं देने के लिए जाना जाता था।
पुस्तक के बारे में पीटीआई- को मिली सूचना के मुताबिक, इसमें इस बात का ब्योरा है कि कैसे एक सूत्र ने अधिकारी नरेन्द्र नाथ धर दुबे को बताया कि जैश-ए-मोहम्मद का मुख्य कमांडर और सबसे खतरनाक आतंकवादी तथा संसद हमले का मास्टरमाइंड गाजी बाबा श्रीनगर के नूरबाग इलाके में एक घर में छिपा हुआ है। पुस्तक में कहा गया है कि गाजी बाबा के बार-बार अपने ठिकाने बदलने की आदत और पकड़ से बचने की उसकी क्षमता के कारण बीएसएफ के लिए उसी रात अपना अभियान चलाना आवश्यक था। इस अभियान की योजना दुबे ने बनाई थी, जो उस समय 61वीं बीएसएफ बटालियन के कार्यवाहक कमांडेंट थे, तथा इसमें 193वीं बटालियन के कर्मियों ने सहायता की थी। बीएसएफ की टीम 30 अगस्त 2003 की सुबह एक बंद इमारत का दरवाजा तोड़कर अंदर घुसी, लेकिन अचानक इमारत में किसी ने बिजली की आपूर्ति बंद कर दी।
पुस्तक के अनुसार, इमारत की तलाशी के दौरान बीएसएफ को पांच नागरिक मिले, जिनमें चार महिलाएं भी थीं, लेकिन उनके जवाब असंगत और संदिग्ध थे, जिससे जवानों को विश्वास हो गया कि वहां आतंकवादी छिपे हुए हैं। बीएसएफ की पुस्तक के मुताबिक, ‘‘जब जवानों ने इमारत की दूसरी मंजिल की तलाशी ली, तो एक कमरे में अलमारी की स्थिति और डिजाइन ने उनके मन में संदेह पैदा किया। जब बीएसएफ के जवानों ने इस फर्नीचर को लात मारकर खोला, तो वहां छिपे आतंकवादियों ने उन पर स्वचालित हथियारों से गोलीबारी की और ग्रेनेड फेंके।’’
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एक ग्रेनेड बीएसएफ दल के बहुत करीब आकर गिरा, लेकिन डिप्टी कमांडेंट बीनू चंद्रन ने साहस का परिचय देते हुए उसे उठाया और जिस दिशा से ग्रेनेड आया था, उसी दिशा में फेंक दिया। इसमें कहा गया, इस कार्रवाई से आतंकवादी अपने ठिकाने से बाहर निकल आए। इसमें यह भी कहा गया है कि एक आतंकवादी अपने सब-मशीन गन से बेतहाशा गोलियां चलाता हुआ अपने ठिकाने से बाहर कूद गया। पुस्तक में कहा गया है कि दुबे को बचाते समय कांस्टेबल बलबीर सिंह को एके-47 की गोली लगी और वह मौके पर ही शहीद हो गए।
घायल दुबे ने आतंकवादी से हाथापाई की, जिसने अपनी थैली से पिस्तौल निकाली और गोली चला दी, जिससे अधिकारी का दाहिना हाथ टूट गया। दुबे को कुल सात गोलियां लगी थीं। खून से लथपथ दुबे ने कांस्टेबल ओमवीर के साथ भाग रहे आतंकवादी गाजी बाबा का पीछा किया और उसे मुठभेड़ में मार गिराया। दुबे को सेना के वीरता पदक कीर्ति चक्र से सम्मानित किया गया, बलबीर सिंह को मरणोपरांत शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया, जबकि बीनू चंद्रन, सेकेंड-इन-कमांड सीपी त्रिवेदी, कांस्टेबल राजेश भदौरिया और अतिरिक्त डीआईजी के श्रीनिवासन को वीरता के लिए राष्ट्रपति पुलिस पदक (पीपीएमजी) से सम्मानित किया गया।