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Prajatantra: Congress की कुर्बानी मजबूरी या बड़प्पन? क्यों पहले ही PM पद की रेस से खुद को कर लिया बाहर?

2024 चुनाव को लेकर सरगर्मियां लगातार बढ़ती जा रही है। चुनाव में 1 साल से भी कम का वक्त है। ऐसे में इसको लेकर राजनीतिक दल अपनी-अपनी रणनीति बनाने में जुटे हुए हैं। वर्तमान में देखें तो ऐसा लगता है कि आगामी चुनाव एनडीए बनाम विपक्षी एकता रहने वाला है जिससे इंडिया का नाम दिया जा रहा है। आज की बेंगलुरु की बैठक से कई बड़े संदेश भी निकले हैं। इस बैठक पर पूरे देश की नजर थी। बैठक में 26 दलों के प्रमुख शामिल हुए। बैठक के बाद कहीं ना कहीं लोकसभा चुनाव को लेकर विपक्षी दलों के राजनीति साफ तौर पर दिखाई देने लगी है। आज की बैठक के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने एक ऐसा बयान दिया है जिसके बाद कांग्रेस की कुर्बानी के चर्चे हो रहे हैं।
 

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विपक्ष की बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि हम राज्य स्तर पर हम में से कुछ लोगों के बीच मतभेदों से अवगत हैं, ये मतभेद विचारधारा संबंधी नहीं हैं। उन्होंने कहा कि दलों के बीच मतभेद इतने बड़े नहीं हैं कि हम लोगों की खातिर उन्हें अलग न रख सकें। खड़गे ने कहा कि हम 26 दल हैं, 11 राज्यों में हमारी सरकार हैं, भाजपा को 303 सीट अकेले नहीं मिलीं, उसने सहयोगियों के मतों का इस्तेमाल किया और फिर उन्हें त्याग दिया। विपक्ष की बैठक में खरगे ने कहा कि भाजपा अध्यक्ष और पार्टी नेता पुराने सहयोगियों से समझौता करने के लिए एक राज्य से दूसरे राज्य दौड़ लगा रहे। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि कांग्रेस को सत्ता या प्रधानमंत्री पद में कोई दिलचस्पी नहीं। हमारा इरादा अपने लिए सत्ता हासिल करना नहीं, बल्कि संविधान, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय की रक्षा करना है। 

खड़के के बयान से इस बात की चर्चा शुरू हो गई है कि क्या कांग्रेस ने पहले ही प्रधानमंत्री पद से अपनी दावेदारी छोड़ दी है? इसे कांग्रेस की कुर्बानी भी समझी जा रही है। हालांकि बड़ा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस ने यह कुर्बानी दी या फिर आत्मसमर्पण किया? राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो भविष्य को देखते हुए कांग्रेस की ओर से यह राजनीतिक सौदेबाजी है। कांग्रेस फिलहाल विपक्षी दलों को अपने भरोसे में रखना चाहती है। कांग्रेस यह नहीं चाहती कि 2024 चुनाव से पहले विपक्षी एकता में किसी भी तरह का रोड़ा उत्पन्न हो। कांग्रेस के इस बयान से यह भी साफ होता दिखाई दे रहा है कि विपक्षी एकता बिना प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के चुनावी मैदान में उतरेगा। उसके बाद सीटों के हिसाब से इस पर फैसला लिया जा सकता है। फिलहाल ऐसा लगता है कि कांग्रेस विंस्टन चर्चिल के एक वाक्य को चरितार्थ करने में लगी है जिसमें उन्होंने कहा था कि विपक्ष का मुख्य काम सत्ता पक्ष को सत्ता से बेदखल करना है। कांग्रेस ने इसको सामने रखकर एक बड़प्पन दिखाने की भी कोशिश की है कि उसे सत्ता से मतलब नहीं, वह तो देश बचाने के लिए लड़ाई लड़ना चाहती है। 

कांग्रेस को अच्छे से पता है कि मिल बैठकर बात कर लेने भर से ही सारे मसले का हल नहीं निकलेगा, गठबंधन की असली परीक्षा सीट बंटवारे को लेकर होगी। ममता बनर्जी और आम आदमी पार्टी की ओर से दावा किया जा रहा है कि जिन राज्यों में क्षेत्रीय दल मजबूत है वहां कांग्रेस को मैदान खाली कर देना चाहिए। भविष्य में सीटों के बंटवारे में अड़चन ना आए इसलिए अभी से ही कांग्रेस ने अपना नरम रुख अख्तियार कर लिया है। कांग्रेस को यह बात अच्छे से पता है कि अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी जैसे नेताओं से डील नरम रुख के आधार पर ही हो सकता है। तेवर रखने पर मामला बिगड़ सकता है। कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है। सभी राज्यों में इसकी मौजूदगी है। ऐसे में कांग्रेस को यह लगता है कि अगर वह सबसे ज्यादा सीट जीत जाती है तो प्रधानमंत्री पद उसके पास से कहीं और नहीं जाएगा। यही कारण है कि सीट शेयरिंग के फार्मूले को लेकर कांग्रेस थोड़ा नाम रख रही है। कांग्रेस ने अभी से ही यह कुर्बानी इसलिए भी देनी शुरू कर दी है ताकि क्षेत्रीय दल भी जरूरत पड़ने पर कांग्रेस के लिए कुर्बानी दे सकें। मतलब कि अगर कांग्रेस पश्चिम बंगाल में 10 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहे और ममता बनर्जी की ओर से सिर्फ 5 सीटें ही उसे दी जाए। तब वहां देश की सबसे पुरानी पार्टी यह बात आराम से कह सकती है कि हमने तो पहले से ही पीएम पद की कुर्बानी दे दी है। 
 

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राजनीति में परिस्थितियां और पात्रता के हिसाब से नेताओं के रंग बदलते हमने खूब देखे हैं। यहां कुछ भी परमानेंट नहीं होता है। जरूरत के हिसाब से ही राजनेता अपने स्टैंड भी लेते हैं। विपक्षी दलों की बैठक में मिलकर लड़ने की बात तो जरूर हो रही है लेकिन जनता किसके चेहरे पर विश्वास करके उन्हें वोट दें, इस पर फिलहाल अब तक बात नहीं बन पाई है। फिलहाल एनडीए की ओर से साफ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही चेहरे पर वह चुनावी मैदान में उतरेंगे। ऐसे में जनता को विपक्षी उम्मीदवार का इंतजार रहेगा। यही तो प्रजातंत्र है। 

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