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न्यायालय ने केंद्र से समलैंगिकों से जुड़े कारकों पर विचार के लिए समिति गठित करने को कहा

उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को केंद्र से कहा कि वह समलैंगिंक जोड़ों से संबंधित सभी प्रासंगिक कारकों की व्यापक जांच करने और उन्हें दिए जाने वाले लाभों पर विचार के लिए केंद्रीय कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति गठित करे।
उच्चतम न्यायालय का यह निर्देश अहम है, क्योंकि तीन मई को समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान केंद्र ने कहा था कि वह कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन करेगा।
न्यायालय ने मंगलवार को समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया। इसके साथ ही शीर्ष अदालत ने कहा कि कानून द्वारा मान्यता प्राप्त विवाह को छोड़कर शादी का कोई असीमित अधिकार नहीं है।

प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिए जाने का अनुरोध करने संबंधी 21 याचिकाओं पर सुनवाई की।
न्यायालय ने चार अलग-अलग फैसले सुनाते हुए सर्वसम्मति से कहा कि समलैंगिक जोड़े संविधान के तहत मौलिक अधिकार के रूप में इसका दावा नहीं कर सकते हैं।
पीठ में शामिल न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट ने अपने और न्यायमूर्ति हिमा कोहली के लिए 89 पृष्ठों का एक अलग फैसला लिखा। उन्होंने कहा, ‘‘तीन मई, 2023 को सुनवाई के दौरान इस अदालत के समक्ष दिए गए बयान के अनुरूप, केंद्र सभी संबंधित कारकों की व्यापक जांच के लिए केंद्रीय कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन करेगा।’’

प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने अपने 247 पृष्ठों के फैसले में, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के आश्वासन को दर्ज किया कि केंद्र सरकार समलैंगिक जोड़ों के अधिकारों के दायरे को परिभाषित और स्पष्ट करने के उद्देश्य से कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन करेगी।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि समिति अपने फैसले को अंतिम रूप देने से पहले, हाशिए पर रहने वाले समूहों सहित समलैंगिक समुदाय के लोगों और राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों के साथ व्यापक चर्चा करेगी।
उन्होंने कहा कि सती प्रथा से लेकर अंतरधार्मिक विवाह तक, विवाह संस्था में व्यापक बदलाव आया है और विवाह को स्थिर या अपरिवर्तनीय संस्था बताना गलत है।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि विवाह की कोई सार्वभौमिक अवधारणा नहीं है और इसे कानून, धर्म एवं संस्कृति में अलग-अलग तरीके से समझा जाता है।

उन्होंने कहा कि कुछ धर्म में विवाह को संस्कार माना जाता है, जबकि अन्य इसे अनुबंध मानते हैं।
उन्होंने कहा कि विवाह एक स्वैच्छिक मिलन है – मन, शरीर और आत्मा का, यह एक दूसरे के प्रति प्रतिबद्धता और रिश्ते के प्रति समर्पण का प्रतीक है। उन्होंने कहा, ‘‘सती और विधवा पुनर्विवाह से लेकर बाल विवाह और अंतरजातीय या अंतरधार्मिक विवाह तक, विवाह का रूप बदल गया है। आज जो संस्था हमारे सामने है, वह शायद दो सौ साल पहले हमारे पूर्वजों के लिए अपरिचित रही होगी।’’
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा कि विवाह का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है और राज्य का यह दायित्व है कि वह समलैंगिक लोगों के मिलन को मान्यता दे और उन्हें कानून के तहत लाभ मुहैया कराए।
उन्होंने कहा, ‘‘स्पष्ट रूप से संविधान विवाह करने के मौलिक अधिकार को मान्यता नहीं देता है।किसी संस्था को कानून द्वारा स्वीकृत सामग्री के आधार पर मौलिक अधिकार के दायरे में नहीं लाया जा सकता है। हालांकि, वैवाहिक संबंधों के कई पहलू संवैधानिक मूल्यों के प्रतिबिंब हैं, जिनमें मानवीय गरिमा का अधिकार और जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार शामिल हैं।

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