दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि विचाराधीन कैदी की लंबी कैद ऐसे आतंकी मामलों में जमानत देने का आधार नहीं हो सकती, जिनका देशव्यापी प्रभाव हो और जिनका उद्देश्य देश की एकता को अस्थिर करना हो। न्यायमूर्ति नवीन चावला और शैलिंदर कौर की पीठ ने यह टिप्पणी की और लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) और 26/11 मुंबई हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद से जुड़े आतंकी वित्तपोषण मामले में अलगाववादी नेता नईम अहमद खान को जमानत देने से इनकार कर दिया। आरोपी ने अपनी जमानत याचिका के खिलाफ निचली अदालत के आदेश को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि निकट भविष्य में मुकदमा समाप्त होने की संभावना नहीं है और हिरासत में बिताए गए समय को स्वतंत्रता के उसके मौलिक अधिकार के साथ संतुलित करने के लिए उसे जमानत दी जानी चाहिए।
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पीठ ने 9 अप्रैल को अपने आदेश में कहा कि हालांकि हम जानते हैं कि विचाराधीन कैदी के त्वरित सुनवाई के अधिकार को उन मामलों में सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है, जिनमें आतंकवादी गतिविधियां शामिल हैं, जिनका राष्ट्रव्यापी प्रभाव होता है और जहां भारत संघ की एकता को अस्थिर करने और इसकी कानून-व्यवस्था को बाधित करने की मंशा होती है, और इससे भी अधिक, जनता के मन में आतंक पैदा करने की, जो कि ऐसे कारक हैं, जो महत्वपूर्ण होते हैं, कारावास की लंबी अवधि अपने आप में किसी आरोपी को जमानत पर रिहा करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं होगी। हुर्रियत कांफ्रेंस के नेता खान को 24 जुलाई, 2017 को गिरफ्तार किया गया था और वह फिलहाल न्यायिक हिरासत में हैं। आतंकवाद विरोधी कानून गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत 2017 में दर्ज मामले में एनआईए ने दावा किया कि अलगाववादियों ने जनता को हिंसा के लिए उकसाने और घाटी में अपने एजेंडे के प्रचार के लिए माहौल बनाने के लिए आपराधिक साजिश रची।