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जल्लीकट्टू की तैयारियों ने तमिलनाडु के भीतरी इलाकों में जोर पकड़ा

विशालकाय सांड वेंगई कुछ लोगों को अपने सामने देखकर अपने सींग से रेत को हवा में उछाल देता है। जब ये लोग करीब आने की कोशिश करते हैं और फिर स्थिर हो जाते हैं तो इस सांड की धौंकनी और तेज हो जाती है।
जल्लीकट्टू पेरावई-तमिलनाडु के अध्यक्ष पी राजशेखरन के खेत इस रोमांचक वार्षिक खेल के नजदीक आने के साथ ही गुलजार हो चुके हैं। उनका मानना है कि देशी नस्लों को बचाने के लिए जल्लीकट्टू अहम है।

राजशेखर सांड की तेज गर्जना का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि सांड की यह आवाज इस बात का पहला संकेत है कि उसने लोगों को मैदान में देखा है और वह लड़ने को पूरी तरह तैयार है।
पेड़ से अपने सींग को रगड़ने वाले जानवर की ओर इशारा करते हुए वह कहते हैं कि यह एक प्राकृतिक तरीका है, जिसके बाद सांड अपने सींगों को तेज करते हैं।
सांडों की आक्रामकता को देखते हुए उन्हें संभालना तब तक आसान नहीं लगता, जब तक कि किसी व्यक्ति को इसकी आदत न हो। जब उसका मालिक या पशुपालक चिल्लाता है, और सेवलाई शब्द बोलता है तो सांड तुरंत अपना सिर हिलाकर और आवाज निकालकर शांत हो जाता है।

जल्लीकट्टू को प्रतिबंधित होने से बचाने के लिए अब तक की गयी अदालती लड़ाइयों का अनुभव रखने वाले राजशेखरन का कहना है कि इस खेल का अथाह आंतरिक मूल्य है और यह धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आयामों के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन जीने का एक तरीका भी है।
वह कहते हैं, देशी नस्लों को बचाने के लिए जल्लीकट्टू अहम है। उनका कहना है कि कठिन कानूनी लड़ाई ने लोगों को देशी नस्लों के महत्व को और भी बेहतर तरीके से समझाया है।

कंगायम, पुलिकुलम और अम्बालाचेरी देशी मवेशियों की नस्लों में शामिल हैं और जल्लीकट्टू में भाग लेने के लिए सांडों के ऊपर एक खास तरह का कूबड़ पूर्व-शर्त है।
उन्होंने कहा, ‘‘आज, बछड़ों और सांडों की उत्कृष्ट मांग है। एक सांड की कीमत को लेकर आश्चर्यचकित न हों। यह कीमत पांच लाख रुपये से ऊपर भी हो सकती है। यह बताना जरूरी नहीं कि किसान को अत्यधिक लाभ होता है।’’
सांडों को प्रशिक्षित करने वाले और उन्हें काबू में करने का अनुभव रखने वाले पुलिस विनोद का कहना है कि उन्हें अपने बैल जेट ली और ब्रूस ली के लिए 10 लाख रुपये से ज्यादा के प्रस्ताव मिले थे।

उनका कहना है कि उन्होंने ऐसे सभी प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया।
राजशेखरन कहते हैं कि लोग भावनात्मक रूप से सांड और गाय से जुड़े होते हैं। उन्होंने कहा, ‘‘हर गांव में एक कोविल कलई (मंदिर सांड) होता है। यह मंदिर को समर्पित होता है। कोई भी इसे छूने की हिम्मत नहीं करता। लोग प्यार और स्नेह से इसकी देखभाल करते हैं।’’
उन्होंने बताया कि ऐसे सांडों का इस्तेमाल प्रजनन के लिए भी किया जाता है और गायों के कृत्रिम गर्भाधान से बचा जाता है। उन्होंने कहा, ‘‘हम देशी नस्लों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं।’’

जल्लीकट्टू से पहले और बाद में लोग सांडों को सजाते हैं, भगवान की पूजा अर्चना करते हैं और आरती उतारते हैं। वे कहते हैं कि परंपरा के अनुसार पशुशाला की देखभाल करने वाली महिलाएं मासिक धर्म के दौरान वहां नहीं जाती हैं।
राजशेखरन सांडों को काबू करने में माहिर व्यक्ति हैं और वह दशकों पहले लगी चोटों के निशान खुशी-खुशी दिखाते हैं। वह सांडों को पालना जारी रखते हैं। हर साल, महाशिवरात्रि के बाद वह मदुरै के पास अपने पैतृक गांव सक्कुडी में जल्लीकट्टू का आयोजन करते हैं।

वर्ष 2006-07 से ही जब प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जल्लीकट्टू से जुड़े मामले अदालतों में पहुंचने लगे, तो उन्होंने खुद को इन मामलों में पक्षकार बना लिया।
इसके अलावा, उन्होंने जल्लीकट्टू को संरक्षित रखने के लिए राज्य के दक्षिणी जिलों में लोगों को सफलतापूर्वक लामबंद किया, जिसके कारण जल्लीकट्टू पेरावई की स्थापना हुई, जिसे मोटे तौर पर जल्लीकट्टू फोरम कहते हैं।
सांडों के प्रति राजशेखरन का प्रेम उनके घर में सांडों की तस्वीरों से स्पष्ट था।

वह अपने खेत की ऐसी एक जगह दिखाते हैं, जहां उनके अप्पू सांड के लिए एक स्मारक बनाया जा रहा था।
अप्पू अपनी असाधारण सजगता के लिए लोगों के बीच एक किंवदंती बन गया था और इसके प्रदर्शन के वीडियो यूट्यूब पर भी उपलब्ध हैं। एक बार अप्पू पेड़ से बंधा हुआ था और एक अन्य सांड ने उस पर हमला कर दिया। पेड़ में बंधे होने के कारण वह जवाबी हमला नहीं कर सका था और उसकी मौत हो गयी थी। यह घटना 2016 के अंत में घटी थी।

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