कश्मीर में पारम्परिक व्यवसायों के जरिये भी लोग अच्छा खासा कमा रहे हैं। इसी कड़ी में 60 वर्षीय अब्दुल रशीद का नाम लिया जा सकता है जोकि कश्मीर में पारंपरिक साबुन को बना रहे हैं और इस काम में वह अकेले ही बचे हैं। उनकी दुकान श्रीनगर के खानकाह इलाके में स्थित है जोकि दशकों से चल रही है। रशीद की कहानी न केवल एक अकेले शिल्पकार की कहानी है, बल्कि कश्मीर में बदलते समय का प्रतिबिंब भी है। कश्मीर घाटी में श्रीनगर के पुराने शहर शहर-ए-खास के बीचोंबीच रहने वाले अब्दुल रशीद लुप्त होती पारम्परिक साबुन बनाने की कला को संरक्षित करने के लिए समर्पित हैं।
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दशकों से वह पैतृक नुस्खों का उपयोग करके साबुन बनाते आ रहे हैं। वह प्राकृतिक तेलों, जड़ी-बूटियों और सुगंधों को मिलाकर साबुन बनाते हैं, जो कश्मीरी संस्कृति का सार दर्शाते हैं। साबुन बनाने की यह परंपरा शहर-ए-खास की सांस्कृतिक पहचान से जुड़ी हुई है, जहाँ कभी हस्तनिर्मित सामान खूब फलते-फूलते थे। हालांकि, कई पारंपरिक शिल्पों की तरह यह कला भी घटती मांग, कच्चे माल की बढ़ती लागत और इस कला को जारी रखने के इच्छुक युवा कारीगरों की कमी के कारण खतरे में है। लेकिन अब्दुल रशीद का जुनून और उत्साह इस कला के प्रति बरकरार है।