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Prajatantra: तस्वीरों में एकता पर हकीकत में मतभेदों का है अंबार, इन मामलों में फंसेगा विपक्षी एकता का पेंच

2024 चुनाव को लेकर अभी से ही सभी पार्टियों ने अपनी तैयारियां शुरू कर दी हैं। हालांकि, ऐसा लग रहा है कि आगामी 2024 का चुनाव भाजपा के लिए एक चुनौती भरा हो सकता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि 15 से अधिक दलों की बिहार की राजधानी पटना में एक बड़ी बैठक हुई। इस बैठक में भाजपा को हराने की रणनीति पर चर्चा हुई। साथ ही साथ भाजपा के खिलाफ सभी दल एकजुट होकर कैसे काम कर सके, इस पर भी रणनीति बनी। हालांकि, यह बात भी सच है कि सभी दलों के अपने-अपने एजेंडे हैं और सभी उन्हीं पर आगे बढ़ना चाहते हैं। बड़ा सवाल यह है कि 2024 के लिए सभी दल एक प्लेटफार्म पर तो आ गए हैं लेकिन क्या यह उतना एकजुट रह पाएंगे जितना ये तस्वीरों में दिख रहे हैं?

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भाजपा के खिलाफ 15 से ज्यादा दल इकट्ठा होने की मुहिम में शामिल हुए हैं। हालांकि, इनमें से ज्यादातर राजनीतिक दल वे हैं जिन्होंने कांग्रेस के खिलाफ लड़ाई लड़ कर अपने अस्तित्व को खड़ा किया है। चाहें इस बैठक की मेजबानी कर रहे नीतीश कुमार की पार्टी जदयू हो या फिर लालू यादव की पार्टी राजद, अखिलेश यादव की पार्टी समाजवादी पार्टी या फिर अन्य दल हो। आज की बैठक में कुछ ऐसे दल भी शामिल हुए हैं जो शुरू से ही कांग्रेस के लगातार विरोधी रहे हैं जिसमें उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री की नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस शामिल है। सभी पार्टियों के एक दूसरे से मतभेद है। लेकिन सभी भाजपा के खिलाफ एकजुट होने की पहल में शामिल हो रहे हैं। जानकारी के मुताबिक बैठक में साझा कार्यक्रम पर भी जोड़ दिया गया है। 

हाल के दिनों में देखें तो राजनीतिक दंगल विपक्षी दलों के बीच भी जारी है। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस ममता बनर्जी और उनकी सरकार पर जबरदस्त तरीके से हमलावर है। इतना ही नहीं, पश्चिम बंगाल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अधीर रंजन चौधरी ममता सरकार के खिलाफ धरने पर ही बैठ गए हैं। बैठक में ममता बनर्जी ने इस पर नाराजगी भी जताई। कांग्रेस पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार पर लगातार हिंसा के आरोप लगा रही है। वहीं, हाल में ही अरविंद केजरीवाल ने राजस्थान में एक चुनावी जनसभा के दौरान कांग्रेस पर निशाना साधते हुए अशोक गहलोत की सरकार को भ्रष्टाचार में डूबा हुआ बता दिया। दिल्ली में अध्यादेश को लेकर केजरीवाल लगातार कांग्रेस पर हमलावर है। उमर अब्दुल्ला कह रहे हैं कि जब हमें 370 पर कई दलों से समर्थन चाहिए था, तब कुछ दल खुशी मना रहे थे। 

सवाल यह भी है कि 15 से ज्यादा राजनीतिक दल एक साथ तो हुए हैं लेकिन क्या इनके वोट बैंक एक दूसरे को ट्रांसफर होंगे? सवाल ये भी है कि ममता बनर्जी उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव को किस तरह से फायदा पहुंचा पाएंगी? एनसीपी बिहार में आरजेडी को क्या फायदा पहुंचाएगी? उद्धव ठाकरे की शिवसेना पंजाब में आम आदमी पार्टी को क्या फायदा पहुंचा सकती है? वहीं डीएमके का उत्तर भारत में क्या अस्तित्व है? ये ऐसे सवाल हैं जिसका जवाब शायद सभी को पता है। तृणमूल पश्चिम बंगाल में है, बंगाल से बाहर उसका कोई असर नहीं होगा? वैसे ही एनसीपी का प्रभुत्व वाला राज्य महाराष्ट्र है, उत्तर भारत में उसके मदद से किसी को कुछ खास सफलता हासिल नहीं होगी। 

बिहार को छोड़ दिया जाए तो लगभग ज्यादातर मौकों पर बने विपक्षी दलों के गठबंधन को कुछ खास फायदा नहीं हुआ है। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में राजद, कांग्रेस और जदयू का गठबंधन था। इस गठबंधन ने भाजपा को बूरी तरीके से हराया था। हालांकि, 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच गठबंधन हुआ था। अखिलेश यादव और राहुल गांधी की जोड़ी को लेकर खूब प्रचार हुआ था। लेकिन भाजपा ने इस चुनाव में समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव के गठबंधन के खिलाफ एकतरफा जीत हासिल की। 2022 के विधानसभा चुनाव में भी तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और एनसीपी का उत्तर प्रदेश में एक गठबंधन ही था। बावजूद इसके सपा कुछ खास कमाल नहीं दिखा सकी। मायावती की बहुजन समाज पार्टी और अखिलेश की समाजवादी पार्टी के बीच 2019 के लोकसभा चुनाव में गठबंधन हुआ था। लेकिन यह गठबंधन भाजपा के सामने फ्लॉप साबित हुआ। 

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पहले ही ऐलान कर चुकी है कि जहां भी क्षेत्रीय दल मजबूत हैं, वहां कांग्रेस को उनका समर्थन करना चाहिए। बड़ा सवाल यही है कि अगर यह गठबंधन फोटो की ही तरह हकीकत में भी मजबूत रहता है क्या बंगाल में कांग्रेस उम्मीदवार नहीं होंगे? अगर तृणमूल कांग्रेस, वामदल और कांग्रेस का बंगाल में गठबंधन होता है तो कौन सी पार्टी कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगी? क्या वामदलों के साथ ममता बनर्जी खड़ी हो पाएंगी? क्योंकि, उनकी पूरी राजनीति वामदलों के खिलाफ ही रही है। बिहार में राजद और जदयू का गठबंधन है। ऐसे में बड़ा सवाल यह भी है कि यहां कांग्रेस को चुनाव लड़ने के लिए कितनी सीटें मिल पाएंगी। तमिलनाडु की बात करें डीएमके और कांग्रेस के बीच सीट शेयरिंग का फार्मूला क्या आराम से तय हो पाएगा? इसके अलावा कांग्रेस, शिवसेना और एनसीपी के बीच महाराष्ट्र में सीट शेयरिंग का फार्मूला क्या रहता है, इन सभी चीजों पर गौर करने की आवश्यकता है।
 

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हकीकत यही है कि फिलहाल मोदी विरोध के नाम पर यह सभी दल इकट्ठा तो हो गए हैं लेकिन इनके अंतर्विरोध भी सामने आ रहे हैं। एक खिचड़ी सरकार देश में सुशासन को कितना स्थापित कर पाएगी, यह बड़ा सवाल है और जनता भी इसको समझने की कोशिश कर रही होगी क्यों 90 का वो दौर सभी को याद होगा जब देश में अलग-अलग सरकारे बनती और गिरती थीं। यही तो प्रजातंत्र है।

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