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हिंदी साहित्य के मौन साधक

हिंदी का एक मौन साधक, महर्षि, मनीषी, जिसके आगे हर हिंदी प्रेमी नतमस्तक है, जिसके कर्म से हिंदी भाषा समृद्ध बनी, ऐसे सजग हिंदीचेता, यशस्वी लेखक, रचनाकार एवं समन्वयवादी-जुनूनी व्यक्तित्व डॉ. देवेंद्र दीपक का जीवन हम सभी के लिए प्रेरणादायक है। उन जैसा हिंदी भाषा का तपस्वी ऋषि आज की तारीख में हिंदी में कोई दूसरा नहीं है। दसवें दशक की उम्र में आज भी वह हिंदी के लिए जी-जान लगाये हुए हैं। मुझे लगता है कि हिंदी को यदि उनके जैसे दो-चार शब्द-शिल्पी और मिल जाते, तो हिंदी के माथे से उपेक्षा का दंश हट जाता और वह दुनिया की प्रथम भाषा होने के साथ भारत की राष्ट्र-भाषा होने के गौरव को भी पा लेती।
डॉ. दीपक को मैंने पहली बार 1994 में देखा, जब मैं माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल का छात्र था। विश्वविद्यालय की पुराना भवन त्रिलंगा में था और दीपक जी उसी सड़क पर बसे शाहपुरा में रहते थे। ऐसे संत साधक और साहित्य सेवी का हमारे विश्वविद्यालय के परिसर के पास होना एक वरदान ही था। हम उनसे मिलते मार्गदर्शन प्राप्त करते। उनकी जीवंतता, आतिथ्य सब याद आते हैं। उनको सुनना हमें समृध्द करता था। वे शब्दों की दुनिया में रचे, बसे और बने थे। हम वहां प्रवेश कर रहे थे। ऐसे में वे न होते तो हम कुछ अधूरे रह जाते। 
डॉ. दीपक ने हिंदी की रचना का जो विशाल, मौलिक, सार्थक और श्रमसाध्य कार्य किया है, उसने हिंदी को विश्व की सर्वाधिक विकसित भाषाओं के समकक्ष लाकर खड़ा किया है। उनका यह प्रयास न सिर्फ अद्भुत है, स्तुत्य है, बल्कि चमत्कार-सरीखा भी है। निश्चित ही वे शब्दाचार्य हैं, शब्द ऋषि हैं, तभी मध्य प्रदेश शासन ने उन्हें हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान के लिए वर्ष 2006-2007 के साहित्य सम्मान से सम्मानित किया था। हिंदी भाषा के लिये कुछ अनूठा एवं विलक्षण करने के लिये उम्र को डॉ. दीपक ने बाधा नहीं बनने दिया, यही कारण है कि उम्र की शताब्दी की ओर बढ़ते पड़ाव पर भी उन्होंने खामोशी अख्तियार नहीं की है। वह लगातार काम पर काम कर रहे हैं। 
 

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डॉ. दीपक का व्यक्तित्व अद्भुत है। बेहद आत्मीय और सहज। उनका व्यक्तित्व जीवन की चुनौतियों का आंख में आंख डालकर सामना करने वाला है। शिक्षा के क्षेत्र से लेकर समाज जीवन तक उन्होंने एक ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण किया, जो साधारण सी काया में उच्च मानवीय गुणों से भरपूर दिल और दिमाग रखता था। उन्होंने आत्मीयता और प्रेम की डोर से सामाजिक रिश्तों को बांधा था। उनके व्यक्तित्व का सशक्त पहलू व्यापक विचारधारा है। भारतीय ज्ञान दर्शन के मर्म की समझ और चिंतन की क्षमता ने उनके व्यक्तित्व में व्यवहारिकता और आध्यात्मिकता का अनूठा संयोजन किया है। विचारों की व्यापकता उनकी रीति-नीति में भी परिलक्षित होती थी। वे कहा करते हैं कि प्रकृति के संसाधनों पर सबका समान अधिकार है, लेकिन संसाधनों का दोहन कुछ ही लोग कर पाते हैं। फलत: प्राप्त लाभांश में उनका भी हक है, जो इसका दोहन नहीं कर पाते है। उनका यही भाव जरूरतमंद की मदद में दिखता है। फिर चाहे शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग करने की बात हो या सामाजिक जिम्मेदारियों में भागीदारी की। डॉ. दीपक का मानना है कि भारतीय संस्कृति में ‘ये तेरा है ये मेरा है’ के लिए कोई स्थान नहीं है। यहां तो विश्व के कल्याण और प्राणियों में सद्भावना की बात की जाती है। विचारों की ऐसी व्यापकता ही उनके व्यक्तित्व को सहज और सुलभ बनाती है।
ये डॉ. दीपक के व्यक्तित्व का जादू ही है कि अंबिकापुर से लेकर जगदलपुर तक, हर जगह उनके काम से जहां प्राचार्य प्रसन्न रहे, वहीं उनके शिक्षण के अनूठे तरीके से छात्र अभिभूत। हालांकि उनकी इस आस्था का प्रतिफल उन्हें तबादलों के रूप में मिला, लेकिन वे न कभी रुके और न ही झुके।मध्यप्रदेश लोकसेवा आयोग से चयनित होने के बाद भी उन्हें 1962 में टर्मिनेशन का शिकार होना पड़ा। बाद में बहाल हुए। बावजूद इसके जिस विचार को उन्होंने अपनी बाल्यावस्था अंगीकार किया, उसपर डटे रहे। वैचारिक आस्था के चलते प्रताड़नाओं को उन्होंने पुरस्कार ही माना और स्वीकारा। तबादले होते रहे उनका वैचारिक परिवार बढ़ता रहा। उन्होंने भारतीयता और भारतबोध को अपनी जिंदगी और लेखन का मूलाधार माना। अपने इस विचार के लिए उन्होंने खुद को झोंककर काम किया। उनका संघर्ष और न झुककर डटे रहने की भावना हमें प्रेरित करती है। उनके विद्यार्थी आज शासन और प्रशासन में सर्वोच्च पदों पर हैं या वहां से सेवानिवृत्त हुए हैं। जीवन और लेखन में उपेक्षित और अलक्षित पर फोकस करने वाले डॉ. दीपक का आपातकाल के विरोध में प्रकाशित काव्य संग्रह ‘बंद कमरा : खुली कविताएं’ बेहद चर्चित रहा। इसके अलावा काव्य नाटक ‘भूगोल राजा का : खगोल राजा का’ भी बेहद लोकप्रिय रहा, जिसे पहले भवानी प्रसाद मिश्र ने ‘गांधी मार्ग’ में  छापा, बाद में ये गांधी शांति प्रतिष्ठान से छपा।
डॉ. दीपक आम आदमी से जुड़े साहित्यकार हैं। आम आदमी की समस्याओं, उनकी रुचियों-अभिरुचियों एवं उनके मनोविज्ञान की उन्हें गहरी समझ हैं। उनकी रचनाओं में आम आदमी का प्रतिबिंब झलकता है, जिससे पाठक उनसे गहरा लगाव अनुभव करता है। पारिवारिक एवं सामाजिक ताने-बाने पर बुनी हुई उनकी लेखनी में हमें समाज का प्रतिबिम्ब स्पष्ट रुप से दिखाई देता है। उनकी यह विशेषता है कि अपनी रचनाओं में वे जितनी सहजता एवं सरलता से समाज के उच्च वर्ग का चित्रण करते हैं, उतनी ही साफगोई से वे समाज के वंचित वर्ग की पीड़ा को भी उजागर करते हैं। उनमें किस्सागोई की गजब की क्षमता है, जिसके कारण उनकी रचनाएं पाठक को अंत तक बांधे रखने की क्षमता रखते हैं। कथ्य और शिल्प की दृष्टि से उनकीलेखनी बेजोड़ हैं और मेरा मानना है कि हर युग में उनकी प्रासंगिकता बनी रहेगी।
उनके लेखन में अनेक साहित्यिक विधाओं की तरंगे उठती हैं। इसमें कहानी का कौतूहल है, तो निबंध की गहराई भी है। गद्यकाव्य की भावात्मक लयात्मकता है, तो डायरी में व्यक्त निश्छल मन की अभिव्यक्ति भी है। संस्मरण की व्यक्तिकता है, तो साक्षात्कार का खुलापन भी। आत्मकथा और जीवनी जैसी आत्मीयता और बेबाकीपन है, तो यात्रा वृत्तांत का सीमित विस्तार भी। व्यंग की छेड़छाड़ है, तो रिपोर्ताज की गुनगुनाहट भी। विभिन्न साहित्यिक रसों में सराबोर डॉ. दीपक का लेखन एक ऐसा संसार रचता है, जिसमें रहने वाले लोग हमारे इसी लोक के प्राणी हैं।
अपने लेखन के माध्यम से डॉ. दीपक का मन्तव्य उन तमाम अनुभूतियों में गुंफित कोमल एवं मधुर स्मृतियों को उजागर करना है, जिसके सहारे वे जीवन दृष्टि को समझते हुए, उन सामाजिक एवं मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं, जहां पहुंच कर मनुष्य-मनुष्य के मध्य का भेद समाप्त हो जाता है। शेष रहती है तो असीम करुणा और चरम शांति। अतिशय संवेदना, विषय संबंधी एकात्मकता, अंतर्मुखी चारित्रिक विशेषता, विश्वसनीयता, सूक्ष्म परिवेक्षण शक्ति, संक्षिप्तता तथा प्रतीकात्मकता, डॉ. दीपक के लेखन की विशेषताएं हैं। स्मृति की रेखाओं में निरंतर संवेदनशील एवं सामाजिक सरोकारों के प्रति अत्यन्त सचेत दीपक जी ने अपनी स्मृतियों में कैद समाज के हाशिये पर रहने वाले लोगों को अपनी लेखनी द्वारा मूर्तिमान कर दिया है। उनके साहित्य का संसार वैयक्तिक वेदनाओं के कोमल तंतुओं से बुना गया है, जिसके क्रन्दन में विश्व कल्याण की शुभेच्छा निहित है। उनकी अंतर्मुखी दृष्टि ‘स्व’ और ‘पर’ के भेद को समाप्त कर एक ऐसा विश्व रचना चाहती है, जिसमें कोई भेद-भाव तथा किसी प्रकार की विषमता न हो।
उनकी पुस्तकें भाषा और शिल्प की दृष्टि से भी उस दौर की रचनात्मकता का पता देते हैं, जब हिंदी में भाषा के स्तर पर ढेरों बदलाव हो रहे थे। शब्दों के आंचलिक प्रयोग, बयान की संक्षिप्ति, कहीं-कहीं बड़े वाक्यों में अल्प विराम के साथ, छोटे-छोटे वाक्यों का लंबा विन्यास पढ़ने में रोचक लगता है। बड़े से बड़े विचार को भी साधारण ढंग से रखने का सौजन्य, उनके लेखन की उपलब्धियों में शामिल है।
जीवन संग्राम में उन्होंने लेखन को ही अपना हथियार बनाया और एकनिष्ठ होकर अबाध गति से भावमय सृजन और कर्ममय जीवन की साधना से आप्लावित अपने चरित्रों एवं विचारों को सार्थकता प्रदान की है। उनकी रचनाओं में चित्रित सभी चरित्र समाज की ह्रासोन्मुखी विकृतियों का पर्दाफाश करते हुए, हृदयविहीन और भावशून्य मनुष्य को मनुष्य बनने की सीख दे जाते हैं। जन सामान्य की संवेदना और उनके बेरंग और बेनूर जीवन पर अपने लेखन से डॉ. देवेंद्र दीपक जी ने उनमें जो रंग भरा है, वह अर्थपूर्ण अनुभूतियों के कारण सर्वकालिक बन गया है।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में प्रोफेसर हैं)

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