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Supreme Court अबॉर्शन के मामले में AIIMS से फिर मांगी रिपोर्ट, गर्भपात के मामले में फंसा हुआ है पेंच

उच्चतम न्यायालय ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के चिकित्सकीय बोर्ड से एक विवाहित महिला के 26 सप्ताह के भ्रूण के संबंध में शुक्रवार को सुनवाई की है। सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच ने इस मामले में सुनवाई की है। ये मामला बेहद बेंचीदा है, जहां एक स्वस्थ्य और जीवित भ्रूण के जीवन को खत्म करने की मांग की जा रही है। ये ऐसा मामला है जिसने खुद सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को भी दो विचारों में बांट दिया है। 
 
शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि शीर्ष अदालत को एक अजन्मे बच्चे जो कि ‘जीवित और सामान्य रूप से विकसित भ्रूण’है, उसके अधिकारों को उसकी मां के निर्णय लेने की स्वायत्तता के अधिकार के साथ संतुलित करना होगा। इसके साथ ही, प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने केंद्र और महिला के वकील को उससे (याचिकाकर्ता से) गर्भावस्था को कुछ और हफ्तों तक बरकरार रखने की संभावना पर बात करने को कहा। न्यायालय ने याचिकाकर्ता के वकील से पूछा, ‘‘क्या आप चाहते हैं कि हम एम्स के चिकित्सकों को भ्रूण की धड़कन रोकने के लिए कहें?’’ पीठ में न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा भी शामिल थे। जब वकील ने ‘नहीं’ में जवाब दिया, तो पीठ ने कहा कि जब महिला ने 24 सप्ताह से अधिक समय तक इंतजार किया है, तो क्या वह कुछ और हफ्तों तक भ्रूण को बरकरार नहीं रख सकती, ताकि एक स्वस्थ बच्चे के जन्म की संभावना हो। पीठ ने मामले की सुनवाई शुक्रवार सुबह 10:30 बजे तय की है। यह मामला न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ के समक्ष उस वक्त आया जब बुधवार को दो न्यायाधीशों की पीठ ने महिला को 26-सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति देने के अपने नौ अक्टूबर के आदेश को वापस लेने की केंद्र की याचिका पर खंडित फैसला सुनाया। शीर्ष अदालत ने नौ अक्टूबर को महिला को यह ध्यान में रखते हुए गर्भ को चिकित्सीय रूप से समाप्त करने की अनुमति दी थी कि वह अवसाद से पीड़ित है और ‘भावनात्मक, आर्थिक और मानसिक रूप से’ तीसरे बच्चे को पालने की स्थिति में नहीं है।
 
एम्स से मांगी रिपोर्ट
अब उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को एम्स को यह रिपोर्ट देने को कहा कि क्या वह (भ्रूण) किसी विकृति से ग्रस्त है। महिला ने न्यायालय से गर्भ को समाप्त करने की अनुमति मांगी है। प्रधान न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा, ‘‘हालांकि एम्स की ओर से पेश की गई पहले की रिपोर्ट में कहा गया है कि भ्रूण सामान्य है, लेकिन मामले को किसी भी संदेह से परे रखने के लिए हम अनुरोध करते हैं कि उपरोक्त पहलू पर रिपोर्ट सौंपी जाए।’’ पीठ ने चिकित्सकीय बोर्ड को शीर्ष अदालत को यह भी अवगत कराने को कहा कि क्या कोई ऐसा साक्ष्य है जिससे संकेत मिलता है कि याचिकाकर्ता की गर्भावस्था उसे कथित तौर पर उस अवस्था के लिए दी जा रही दवाइयों से खतरे में पड़ सकती है जिससे वह पीड़ित बताई गई है। पीठ ने एम्स के चिकित्सकों को इस बात की छूट है कि वे याचिकाकर्ता के मानसिक तथा शारीरिक अवस्था का स्वतंत्र मूल्यांकन कर सकते हैं।
 
शीर्ष अदालत ने कहा कि यह जांच दिन में की जा सकती है और चिकित्सकीय बोर्ड की रिपोर्ट सुनवाई की अगली तारीख 16 अक्टूबर को उसके समक्ष रखी जाए। गर्भ का चिकित्सकीय समापन (एमटीपी) अधिनियम के तहत गर्भावस्था को समाप्त करने की ऊपरी सीमा विवाहित महिलाओं और बलात्कार पीड़िताओं सहित विशेष श्रेणियों और विकलांग तथा नाबालिगों के लिए 24 सप्ताह है। पीठ ने बृहस्पतिवार को इसी मामले पर सुनवाई करते हुए कहा था,‘‘हम बच्चे को नहीं मार सकते।’’ साथ ही पीठ ने कहा था कि एक अजन्मे बच्चे के अधिकारों तथा स्वास्थ्य के आधार पर उसकी मां के स्वायत्त निर्णय लेने के अधिकारों के बीच संतुलन स्थापित करने की जरूरत है। 
 
महिला का अपने शरीर पर अधिकार
बता दें कि सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने महिला को भ्रूण का गर्भपात कराने की अनुमति दी थी। एम्स मेडिकल बोर्ड द्वारा गर्भावस्था को व्यवहार्य प्रमाणित करने के बाद कोर्ट ने ये फैसला सुनाया। इस मामले में 25 सप्ताह की गर्भवती महिला ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाकर कहा था कि उसे गर्भपात कराने की अनुमति दी जाए क्योंकि वो चिकित्सीय आधार पर इसके लिए तैयार नहीं है। महिला ने जानकारी दी कि वो अवसाद से भी पीड़ित थी। आउटलुक के मुताबिक महिला ने अदालत में जानकारी दी थी कि वह पिछले एक साल से मनोरोग का इलाज करा रही है।
 
जानें क्या कहता है एमटीपी अधिनियम
मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (एमटीपी) अधिनियम के तहत गर्भावस्था को समाप्त करने की भारत की ऊपरी सीमा विवाहित महिलाओं, बलात्कार से बची महिलाओं सहित विशेष श्रेणियों और विकलांग और नाबालिगों जैसी अन्य कमजोर महिलाओं के लिए 24 सप्ताह है। द वायर के मुताबिक मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (एमटीपी) अधिनियम की धारा 3(2) गर्भपात की अनुमति देती है। इस गर्भपात का आधार होता है कि “मां के शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर चोट लगने का खतरा है या इस आधार पर कि पर्याप्त जोखिम है।” ऐसी स्थिति में अगर बच्चे का जन्म होता है तो बच्चा शारीरिक या मानसिक असामान्यताओं से पीड़ित होकर गंभीर रूप से विकलांग हो जाएगा।” न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना की शीर्ष अदालत की पीठ ने सोमवार को इस मामले पर सुनवाई की।
 
लाइव लॉ ने पीठ के हवाले से कहा, “इस अदालत ने इस तथ्य को मान्यता दी है कि जिन आधारों पर गर्भावस्था हो सकती है उनमें से एक यह है कि गर्भावस्था जारी रखने से महिला के मानसिक स्वास्थ्य पर असर पड़ सकता है। एमटीपी अधिनियम की धारा 3(2) में प्रयुक्त अभिव्यक्ति उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर चोट को एक व्यापक और सर्वव्यापी अर्थ में उपयोग किया जाता है। इसमें कहा गया है, “अदालत एमटीपी अधिनियम की धारा 5 की व्यापके रूप से व्याख्या कर रही हैं जो उन परिस्थितियों में 20 सप्ताह से अधिक गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति देती है जहां महिला के जीवन को बचाने के लिए इसे अनिवार्य माना जाता है।” अदालत ने इस तथ्य को भी मान्यता दी है कि “मानसिक स्वास्थ्य” का अर्थ मेडिकल भाषा में मानसिक बीमारी के रूप में समझी जाने वाली बीमारी से परे है।
 
वहीं मंगलवार को भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की शीर्ष अदालत की पीठ ने एएआईएमएस को गर्भावस्था की समाप्ति पर रोक लगाने का आदेश दिया। बता दें कि एम्स मेडिकल बोर्ड द्वारा गर्भावस्था को समाप्त करने में अपनी ‘अक्षमता’ का हवाला देने के बाद ये हुआ है। 
 
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक एम्स के डॉक्टरों का कहना था कि बच्चे में जीवन के लक्षण दिखे है और उसके जीवित रहने की संभावना है। ऐसे में भ्रूण हत्या को रोकना जरुरी है। एम्स के मुताबिक हम यह प्रक्रिया उस भ्रूण के लिए करते हैं जिसका विकास असामान्य है, लेकिन आम तौर पर सामान्य भ्रूण में नहीं किया जाता है।” यदि भ्रूणहत्या नहीं की जाती है, तो यह समाप्ति नहीं है, बल्कि समय से पहले प्रसव है, जहां जन्म लेने वाले बच्चे को उपचार और देखभाल प्रदान की जाएगी। हालांकि ऐसे में बच्चे की जीवन के स्तर को भी बड़ा खतरा हो सकता है। ऐसे में निर्देश दिए जाने जरुरी है कि बच्चे के साथ क्या होना चाहिए। क्योंकि अगर बच्चे के माता-पिता बच्चे को रखने के लिए राजी होते हैं तो इससे उनपर अतिरिक्त शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और वित्तीय रूप से बड़ा असर होगा।
 
इससे पहले इस मामले पर सुनवाई करते हुए कोर्ट के दोनों न्यायाधीश अलग अलग बात करते दिए। एक ने गर्भपात की अनुमति देने की अनिच्छा जताई और दूसरे न्यायाधीश ने महिला के फैसले का सम्मान किए जाने पर जोर दिया। वहीं न्यायाधीश हिमा कोहली ने हैरानी जताई कि किसी भ्रूण के दिल को रोकने की इजाजत कौन सी अदालत दे सकती है। उनका ये बयान जाहिर कर गया कि वो गर्भपात की अनुमति देने के लिए इच्छुक नहीं थी। वहीं न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना ने कहा कि अदालत को फैसले का सम्मान करना चाहिए। दोनों न्यायाधीशों के बीच असहमति को देखते हुए अदालत ने नौ अक्टूबर को आदेश पारित किया था कि मामला मुख्य न्यायाधीश डी चंद्रचूड़ के समक्ष रखा जाना चाहिए।
 
न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा कि वह सम्मानपूर्वक न्यायमूर्ति कोहली से असहमत हैं। न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा कि महिला की याचिका का निपटारा अदालत ने 9 अक्टूबर को एक विस्तृत आदेश द्वारा कर दिया था और याचिकाकर्ता अपनी गर्भावस्था को आगे नहीं बढ़ाने के अपने फैसले पर कायम है। “याचिकाकर्ता द्वारा किए गए ठोस दृढ़ संकल्प को ध्यान में रखते हुए, मुझे लगता है कि उसके (महिला) निर्णय का सम्मान किया जाना चाहिए। याचिकाकर्ता की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का हवाला देते हुए, इस तथ्य का हवाला देते हुए कि उसके पहले से ही दो बच्चे हैं और उसने दोहराया है कि उसकी मानसिक स्थिति और जो दवाएँ वह ले रही है, वह उसे गर्भावस्था जारी रखने की अनुमति नहीं देती है। उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा किए गए ठोस निर्णय को ध्यान में रखते हुए, मुझे लगता है कि उसके निर्णय का सम्मान किया जाना चाहिए।
 
सुनवाई के दौरान केंद्र की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने इस मामले में अब आई मेडिकल राय का जिक्र किया। “जब बच्चा जीवित रह सकता है तो सिर्फ महिला के अधिकार के संबंध में नहीं सोच सकते है। सुनवाई के दौरान पीठ ने कहा कि केंद्र ने मंगलवार को सीजेआई की अध्यक्षता वाली पीठ के समक्ष जिस तरह से मामले का उल्लेख किया था, वह उसकी सराहना नहीं करती। इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार ऐश्वर्या भाटी ने कहा कि अदालत का निर्देश मंगलवार के लिए था ऐसे में इस मामले का उल्लेख पीठ के समक्ष करना पड़ा।
 
इस मामले में न्यायमूर्ति कोहली ने कहा कि हम मेडिकल रिपोर्ट पर भरोसा करते है क्योंकि रिपोर्ट में हमारी जानकारी से अधिक जानकारी होती है। रिपोर्ट के जरिए एक टीम की मरीज से बातचीत भी होती है, जो पेश की जाती है। इस तरह की अस्पष्ट रिपोर्ट देने के बाद महिला की समस्याओं में बढ़ सकती है। इस मामले में गुरुवार को मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा, ”हम किसी बच्चे को नहीं मार सकते।”

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