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आजादी के सात दशक बाद भी बहस समय समय पर चलती रहती है कि क्या आरक्षण की मूल नीति में बदलाव की जरूरत है? क्या गरीबी की कोई जाति नहीं होती है, क्या आरक्षण पाने वाली जातियां अब शासक वर्ग का हिस्सा बन गई हैं? आरक्षण का लाभ खास जातियों तक सीमित रह गया है क्या? ये सवाल तब शुरू हुए हैं जब कि इस दौर में आरक्षण के खिलाफ बोलना राजनीतिक आत्महत्या के बराबर माना जाता है। कोई भी दल, कोई भी नेता इसके खिलाफ जाने की सोचना तो दूर की बात है, इसके खिलाफ बोलने की हिमाकत नहीं कर सकता।
आरक्षण का इतिहास
1858 में ज्योतिबा फुले ने हन्टर कमीशन के सामने जनसंख्या के अनुपात में पिछड़ों को प्रतिनिधित्व देने की मांग की। आजादी के पहले प्रेसिडेंसी रीजन और रियासतों के एक बड़े हिस्से में पिछड़े वर्गों (बीसी) के लिए आरक्षण की शुरुआत हुई थी। महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी महाराज ने 1902 में पिछड़े वर्ग से गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उन्हें उनकी हिस्सेदारी (नौकरी) देने के लिए आरक्षण शुरू किया था। 1909 में अंग्रेजों ने प्रशासन में हिस्सेदारी के लिए आरक्षण शुरू किया। 1930, 1931, 1932 में डॉ अम्बेडकर ने प्रतिनिधित्व की मांग गोलमेज सम्मेलन में की। जब भी आरक्षण का जिक्र होता है तो अक्सर ये कहा जाता है कि महात्मा गांधी और बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के बीच पूना पैक्ट का ही परिणाम है कि आरक्षण एक संवैधानिक अधिकार है। आरक्षण खैरात नहीं है।
भारत में आरक्षण
भारत में 49.50 प्रतिशत आरक्षण का प्रवाधान हैं।
दलित 15%
आदिवासी 7.5%
ओबीसी 27%
इसके अलावा आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण का प्रवाधान साल 2019 में किया गया।
1963 में एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आमतौर पर 50 फ़ीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता है। क्योंकि एक तरफ हमें मेरिट का ख़्याल रखना होगा तो दूसरी तरफ हमें सामाजिक न्याय को भी ध्यान में रखना होगा। अगल-अलग राज्यों में आरक्षण देने का तरीका अलग है।
जिसके तहत महाराष्ट्र में शिक्षा और सरकारी नौकरियों में मराठा समुदाय को 16% और मुसलमानों को 5% अतिरिक्त आरक्षण दिया गया।
तमिलनाडु में सबसे अधिक 69 फीसदी आरक्षण लागू किया गया है।
एक अनुमान के मुताबिक देश की 70 से 75 फीसदी आबादी आरक्षण के दायरे में आती है। इसमें वो लोग भी शामिल हैं जो आर्थिक रुप से पूरी तरह संपन्न हैं, लेकिन आरक्षण का फायदा उठाना नहीं भूलते हैं। इस बात से आरक्षण नीति के उद्देश्य, औचित्य और इस पर अमल के तरीके को लेकर गंभीर सवाल खड़े हो गए। सामाजिक न्याय की जो व्यवस्था उसके सही परिणाम मिल रहे हैं या नहीं? जो सक्षम हैं उन्हें आरक्षण की सुविधा नहीं मिलनी चाहिए, बल्कि आरक्षण उन्हें मिलनी चाहिए जो इसके असली हकदार हैं। जरूरत यही है की लाभ जरूरतमंद को मिले तभी संविधान की मूल भावना का सम्मान हो पाएगा।
आजादी के बाद जब हमारे संविधान निर्माताओं ने आरक्षण लागू किया था, तो उस समय ये कहा गया था कि आरक्षण सिर्फ 10 वर्ष के लिए होगा और अगर जरूरत पड़ी तो इसे आगे बढ़ाया जाएगा। बाबा साहब आंबेडकर ने ही आरक्षण की सबसे ज्यादा वकालत की थी। लेकिन वो ये मानते थे कि आरक्षण सदा के लिए नहीं हो सकता। कहा ये भी जाता है कि बाबा साहब आंबेडकर ने शुरुआत में ये भी सुझाव दिया था कि 10 वर्ष की जगह पर आरक्षण को 30 या 40 वर्षों के लिए निश्चित कर दिया जाना चाहिए और इसमें विस्तार करने की किसी भी संभावना को खत्म कर दिया जाए। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया क्योंकि राजनीतिक दलों ने आरक्षण को चुनाव में जीत हासिल करने का हथियार बना लिया। राजनीति के खिलाड़ियों ने बाबा साहब के नाम और उनपर अपना आधिपथ्य जाहिर करने की तो बखूबी कोशिश की लेकिन बाबा साहब के मूल विचारों को रत्ती भर भी नहीं समझा।