जिस यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता की बात आज हो रही है, इसका जिक्र तो संविधान में भी है जो 26 नवंबर 1949 को बनकर तैयार हुआ था और 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था। फिर संविधान के बनने के वक्त ही समान नागरिक संहिता लागू क्यों नहीं हुई। आखिर संविधान के बनते वक्त वो कौन सी बहस थी जिसने संविधान में समान नागरिक संहिता का जिक्र तो किया लेकिन उसे लागू नहीं किया। आखिर वो कौन ऐसे लोग थे जो समान नागरिक संहिता को लागू करना चाहते थे लेकिन उनकी तमान कोशिशों के बाद भी लागू नहीं हो पाया। इतिहास के पन्नों के हवाले से इस पर विस्तार से बात करते हैं। लेकिन इसकी बारीकियों को और गहराई में समझना है तो आपको इतिहास में उतरना होगा। ब्रिटिश शासनकाल से लेकर आजादी के साल तक समान नागरिकता कानून को लेकर ऐसा रहा सूरते-हाल। अंग्रेजी हुकूमत ने 1835 को एक रिपोर्ट तैयार की। इस रिपोर्ट में अपराधों, सबूतों और अनुबंधों से संबंधित भारतीय कानून के संहिताकरण में एकरूपता की आवश्यकता पर बल दिया गया था। लेकिन विशेष रूप से सिफारिश की गई थी कि हिंदुओं और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को इससे बाहर रखा जाए। आगे चलकर यही रिपोर्ट से कॉमन सिविल कोड वाले बहस को जमीनी आधार मिल गया था।
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यूरोपीय देशों में 19वीं शताब्दी में पहली बार सामने आया विचार
ऐतिहासिक रूप से यूसीसी का विचार 19वीं शताब्दी और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में यूरोपीय देशों में तैयार किए गए समान कोड से प्रभावित है। 1804 के फ्रांसीसी कोड ने उस समय प्रचलित सभी प्रकार के प्रथागत या वैधानिक कानूनों को खत्म कर दिया था और इसे समान नागरिक संहिता से बदल दिया। बड़े स्तर पर यह पश्चिम के बाद एक बड़ी औपनिवेशिक परियोजना के हिस्से के रूप में राष्ट्र को ‘सभ्य बनाने’ का एक प्रयास था। हालांकि, 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने ब्रिटेन को एक सख़्त संदेश दिया कि वो भारतीय समाज के ताने बाने को नहीं छेड़े और शादियां, तलाक, मेनटेनेंस, गोद लेने और और उत्तराधिकार जैसे मामलों से संबंधित कोड में कोई बदलाव लाने की कोशिश नहीं करे।
संविधान सभा में हुई थी जोरदार बहस
इसको लेकर जब पहली बार संविधान सभा में बहस हुई थी तब डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि व्यावहारिक रूप से इस देश में एक सिविल संहिता है जिसके प्रावधान सर्वमान्य हैं और समान रूप से पूरे देश में लागू हैं। लेकिन विवाह और उत्तराधिकार के मामलों में एक समान कानून लागू नहीं हैं। यह बहुत छोटा सा क्षेत्र है जिस पर हम समान कानून नहीं बना सके हैं। इसके लिए सकारात्मक बदलाव लाया जाए। वहीं संविधान सभा के सदस्य के.एम. मुंशी ने कहा, हम एक प्रगतिशील समाज हैं और ऐसे में धार्मिक क्रियाकलापों में हस्तक्षेप किए बिना हमें देश को एकीकृत करना चाहिए। संविधान सभा के सदस्य कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा था कि कुछ लोगों का कहना है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड बन जाएगा तो धर्म खतरे में होगा और दो समुदाय मैत्री के साथ नहीं रह पाएंगे।
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हिन्दू कोड बिल को नेहरू ने बनाया अपनी निष्ठा का सवाल
ब्रिटिश शासन के अंत में व्यक्तिगत मुद्दों से निपटने वाले कानूनों की भरमार ने सरकार को 1941 में हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के लिए बीएन राव समिति बनाने के लिए मजबूर किया। जिसके बाद संविधान सभा में नेहरू और आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल का शुरुआती मसौदा पेश किया। बिल का मसौदा ये था कि हिन्दू धर्म को मानने वाले लोगों के वसीहत और शादी के नियम कलमबद्ध किए जाए। और वो आधुनिक समाज की चेतनाओं के मुताबिक हों। देश की एक बड़ी आबादी को और उससे भी ज्यादा धर्म गुरुओं को निजी मामलों में सरकार का दखल लगा। राजेंद्र प्रसाद लोगों की इस राय से इत्तेफाक रखते थे। जून 1948 में जब मसौदे पर पहली मर्तबा बहस हुई तो बतौर अध्यक्ष दखल देते हुए उन्होंने कहा कि ये जल्दबाजी में की जा रही चीज है। देश इससे सहमत नहीं है। जरूरत रजामंदी की है और जरूरत ऐसी विधायिका की भी है जो लोगों की इस मामले में आंकाक्षा का सही प्रतिनिधित्व करती हो। राजेंद्र बाबू ने केवल और केवल हिन्दू कानून बनाने का विरोध करते हुए कहा था कि अगर मौजूदा कानून अपर्याप्त और आपत्तिजनक है तो सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता क्यों नहीं लागू की जाती। सिर्फ एक समुदाय को ही कानूनी दखलंदाजी के लिए क्यों चुना गया। नेहरू इससे इत्तेफाक नहीं रखते थे। नेहरू ने तमाम वाद पेश किए और अपनी बात को जायज ठहराने की कोशिश की। संविधान सभा की कार्यवाही आगे बढ़ी, हिन्दू कोड बिल को लेकर देश में बहस बढ़ती रही। लेकिन जैसे कि नेहरू ने हिन्दू कोड बिल को अपनी निष्ठा का प्रश्न बना लिया। राजेंद्र बाबू और पंडित नेहरू के बीच इसको लेकर काफी घमासान भी हुआ और पत्राचार भी।
राजेंद्र बाबू द्वारा नेहरू को लिखे पत्र का मजमून
14 सितंबर 1951 को राजेंद्र प्रसाद ने पंडित नेहरु को पत्र लिखा था जिसमे सिर्फ हिन्दुओं के लिए हिन्दू कोड बिल लाने का विरोध करते हुए कहा था कि अगर जो प्रावधान किये जा रहे हैं वो ज्यादातर लोगों के लिए फायदेमंद और लाभकारी हैं तो सिर्फ एक समुदाय के लोगों के लिए क्यों लाए जा रहे हैं बाकी समुदाय इसके लाभ से क्यों वंचित रहें। उन्होंने कहा था कि वह बिल को मंजूरी देने से पहले उसे मेरिट पर भी परखेंगे। नेहरू ने उसी दिन उन्हें उसका जवाब भी भेज दिया जिसमें कहा कि आपने बिल को मंजूरी देने से पहले उसे मेरिट पर परखने की जो बात कही है वह गंभीर मुद्दा है। इससे राष्ट्रपति और सरकार व संसद के बीच टकराव की स्थिति बन सकती है। संसद द्वारा पास बिल के खिलाफ जाने का राष्ट्रपति को अधिकार नहीं है। डाक्टर प्रसाद ने नेहरू को 18 सितंबर को फिर पत्र लिखा जिसमें उन्होंने संविधान के तहत राष्ट्रपति को मिली शक्तियां गिनाई साथ ही यह भी कहा कि वह मामले में टकराव की स्थिति नहीं लाना चाहेंगे। बात अधिकारों तक पहुंची और अंत में अटार्नी जनरल की राय ली गई तब मामला शांत हुआ था।
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