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Matrubhoomi | हनुमान जी की शक्ति और विनम्रता के संयोग की अनूठी कहानी | Why we love Hanuman

इस दुनिया में जितने भी नायक या महानायक हुए हैं कोई ऐसे नहीं है जिन्होंने कभी असफलता का मुंह न देखा हो। कहा तो ये भी जाता है कि जितनी ज्यादा बड़ी असपलता के बाद सफलता मिलती है उतना ही आदमी महान कहलाता है। लेकिन इस पूरी सुष्टि के अंदर एक मात्र ऐसे नायक जिन्होंने कभी असफलता का मुंह ही नहीं देखा। ऐसा नहीं है कि इनकी जिंदगी में संकट नहीं आए। इनकी जिंदगी में बारम-बार संकट आए। लेकिन कोई संकट इनको आगे बढ़ने से रोक नहीं सका। इसलिए इन्हें संकटमोचन कहते हैं। इंसान अपने जीवन में अपना परिचय देने के लिए अपनी डिग्रीयां गिनाते हैं। हमने यहां से पढ़ाई की और इस ऑर्गनाइजेशन में काम कर रहे हैं। हनुमान इसलिए सर्वश्रेष्ठ और हमारे सबसे प्रिय हैं क्योंकि वो कभी ये नहीं कहते कि मैं कौन हूं। वो केवल ये कहते हैं कि मेरी पहचान ही ये है कि मैं राम का भक्त हूं। महर्षि भी इनका परिचय देते हुए यही लिखते हैं कि इतने सारे गुण हैं, शक्तियां हैं लेकिन अंत में क्या हैं राम दूत हैं। मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् अर्थात जिनकी मन के समान गति और वायु के समान वेग है, जो परम जितेन्दिय और बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, उन पवनपुत्र वानरों में प्रमुख श्रीरामदूत का दूत हैं। पंचतत्वो में से एक पवन के बेटे हैं, मां अंजनि के पुत्र हैं, भगवान शंकर के मानस पुत्र हैं, ब्रह्मा उनके गुरु हैं। इंद्र ने पानी में कभी न डूबने का वरदान दिया, अग्नि ने कभी न जलने का शक्ति दी। सुरषा, लंकिनी सभी को मारा। लेकिन फिर भी वो सीता जी से मिलने पर वो एक लाइन का अपना परिचय देते हुए कहते हैं- रामदूत मैं मात जानकि, सत्य शपथ करुणानिधान की। माता मेरा इतना ही परिचय है कि मैं राम का दूत हूं। कसम भी उन्हीं की खाकर कहता हूं। हनुमान बहुत शक्तिशाली हैं, लेकिन उनका पूजन इसलिए है क्योंकि वो विनम्र बहुत हैं। हनुमान जी ने जब लंका में आग लगाई तो जगह पर आग नहीं लगाई। एक स्थान अशोक वाटिका था और दूसरा विभिषण का घर। जिससे साफ प्रतीत होता है कि क्रोध करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन उस पर भी एक नियंत्रण होना बेहद ही जरूरी है। 

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रामकाज करिबे को आतुर 
जब भी कोई काम सौंपा जाता है तो ये आगे बढ़कर उसे स्वीकार करते हैं। सीता जी को कौन ढूंढ़ने जाएंगा- हनुमान, संजीवनी बूटी कौन लाएगा- हनुमान। रामायण के आरंभ से अंत तक एक मात्र हनुमान हमेशा चेहरे पर शांत भाव के साथ नजर आए। श्रीरामचरित मानस में सीता की खोज करते हुए जामवंत, अंगद और हनुमान दक्षिण समुद्र तट तक पहुंच गए थे। यहां से किसी को लंका जाकर सीता के बारे में पता लगाकर वापस आना था। ये काम कौन करेगा, इस पर सभी मंथन कर रहे थे। श्रीरामचरित मानस में जामवंत के बारे में लिखा है कि मैं अब बूढ़ा हो गया हूं। वामन अवतार के समय मैं जवान था, लेकिन अब मेरे शरीर में इतनी शक्ति नहीं है कि मैं लंका जा सकूं। इसके बाद अंगद ने खुद की शक्ति पर शंका करते हुए कहा कि मैं लंका जा तो सकता हूं, लेकिन वापस आ सकूंगा या नहीं, इस पर मुझे संदेह है। फिर जामवंत हनुमान जी की ओर देखते हुए कहते हैं कि कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना॥ पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥ अर्थात जामवंत ने हनुमानजी से कहा हे हनुमान, हे बलवान। सुनो, तुम चुप क्यों हो? तुम पवन पुत्र हो, बल में पवन के समान हो, तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञान की खान हो॥ कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥ राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकारा। इस संसार में ऐसा कौन सा काम है जो हे तात, तुम नहीं कर सकते हो। रामकाज के लिए ही तुम्हारा अवतार हुआ है। ये बात सुनते ही हनुमान पर्वत के आकार के हो गए। 
जब ताकत दिखानी थी तो बड़े हुए, बुद्धि दिखाने की बारी आई तो छोटे हो गए 
शक्तियां याद आने के बाद हनुमान जी जामवंत से पूछते हैं कि मुझे क्या करना चाहिए। इतने शक्तीशाली हनुमान एक बूढ़े जामवंत से पूछ रहे हैं कि मुझे क्या करना चाहिेए। कहा जाता है कि जिस पर्वत पर पैर रखकर हनुमान जी ने छलांग लगाई वो पर्वत पाताल में चला गया। रास्ते में उनका टकराव सबसे पहले सुरषा के साथ हुआ। सुरषा ने बोला कि मैं तुम्हें खा जाऊंगी। हनुमान जी ने बोला ठीक है। सुरषा ने अपना मुंह बढ़ाया यानी एक योजना का, एक योजन में आठ मील होता है। लेकिन हनुमान जी 2 योजन के हो गए। जब सुरषा ने 2 योजन का मुंह किया तो हनुमान जी 4 योजन के हो गए। चार योजन के मुंह करने पर हनुमान जी 8 योजन के हो गए। ये सिलसिला चलता रहा। फिर जब सुरषा ने 64 योजन का मुंह किया तो हनुमान जी ने सूक्ष्म रूप धर कर उसके मुंह से वापस आ गए। इससे ये संदेश है कि जब ताकत दिखानी थी तो बढ़े हुए, जब बुद्धि दिखाने की बारी आई तो छोटे हो गए। 

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सीता जी से मुलाकात 
जब सीता जी से हनुमान जी मिले तो रावण वहां उन्हें धमका रहा था। हनुमान जी पत्तों के बीच में छुपे बैठे थे। एक महीने का वक्त दिया। रावण के जाने पर हनुमान जी ने मुद्रिका को सीता मां के सामने रख दिया। जब सीता जी ने पूछा आप कौन हैं? हनुमान जी ने कहा राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की। मैं राम जी का दूत हूं और उन्हीं की शपथ लेकर कहता हूं। इससे ज्यादा बड़ा परिचय मेरा कोई नहीं है। जिसके जवाब में माता सीता कहती हैं कि जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलंबु रघुराई। श्री रामचंद्रजी ने यदि खबर पाई होती तो वे बिलंब न करते। हे जानकीजी! रामबाण रूपी सूर्य के उदय होने पर राक्षसों की सेना रूपी अंधकार कहाँ रह सकता है? 
हनुमान जी की शक्ति और विनम्रता का संयोग 
हनुमान जी ने कभी जीवन में ‘मैं’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। सीता जी को खोजने पर इसे प्रभु राम के आशीर्वाद से संभव बताया। जब लक्ष्मण को मूर्क्षया आई और भगवान को लगा कि मेरा सबसे बड़ा संकट कौन हर सकता है? भगवान के ऊपर संकट आया तो उन्होंने हनुमान को पुकारा और कहां कि तुम जाओ और हमारे लिए संजीवनी बूटी लेकर आओ। आसमान में उनका सूरज से सामना हुआ। सूरज से मिले तो उन्होंने विनम्रता से कहा- हे सूरज इतना याद रहे, संकट एक सूरज वंश पे है, लंका के नीच राहु द्वारा आघात दिनेश अंश पर है। इसीलिए छिपे रहना भगवन जब तक न जड़ी पंहुचा दूं मैं, बस तभी प्रकट होना दिनकर जब संकट निशा मिटा दूं मैं। मेरे आने से पहले यदि किरणों का चमत्कार होगा, तो सूर्य वंश में सूर्यदेव निश्चित ही अंधकार होगा। आशा है स्वल्प प्रार्थना ये सच्चे जी से स्वीकरोगे, आतुर की आर्थ अवस्था को होकर करुणार्ध निहारोगे। इतनी बड़ी विनती के बाद धीरे से अपना परिचय याद कराते हुए हनुमान कहते हैं- अन्यथा छमा करना दिनकर, अंजनी तनै से पाला है, बचपन से जान रहे हो तुम हनुमत कितना मतवाला है। मुख में तुमको धर रखने का फिर वही क्रूर साधन होगा, बंदी मोचन तब होगा जब लक्ष्मण का दुःख मोचन होगा। 

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पीपल का पेड़, प्रेत और तुलसीदास 
तुलसी दास जी को भगवान राम की भक्ति की प्रेरणा अपनी पत्नी रत्नावली से प्राप्त हुई थी। राम की भक्ति में तुलसीदास ऐसे डूबे की दुनिया जहान की सुध न रही। तुलसी दास भगवान की भक्ति में लीन होकर लोगों को राम कथा सुनाया करते थे। एक बार काशी में रामकथा सुनाते समय इनकी भेंट एक प्रेत से हुई। प्रेत से उन्होंने हनुमान जी से मिलने का उपाय पूछा। उसने बताया कि वाराणसी के अस्सी घाट पर रामकथा होती है। किसी न किसी रूप में हनुमान जी उस कथा को अवश्य श्रवण करने आते हैं। अमुक स्थान पर जो नित्य कथा होती है उसमें हनुमान जी कुष्टी के रूप में आते हैं। आप उनके चरण पकड़ लें वह बहुत मना करेंगे किन्तु आप छोड़े नहीं वह आपको भगवान के दर्शन करवा सकते हैं। यह सुनकर तुलसीदास जी को बहुत प्रसन्नता हुई। वह कथा में गए उन्होंने सबसे दूर एक कुष्ठी को बैठा देखा उसके नेत्रों से अश्रु प्रवाहित हो रहे थे और वह चुपचाप बैठे कथा सुन रहे था। तुलसीदास जी उसे देखते रहे। ज्यों ही कथा समाप्त हुई उन्होंने जाकर उस कुष्ठी के पैर पकड़ लिए उसने बहुतेरा कहा,” अरे भैया! तुम मुझे क्यों कष्ट देते हो? मेरे पर क्यों अपराध चढ़ाते हो? मैं तो कुष्टी हूं मुझे मत छुओ? मेरे पैरों को मत छुओ? किंतु गोस्वामी माने ही नहीं। उनके पास पहुंच गए और प्रार्थना करने लगे कि राम के दर्शन करवा दें। गोस्वामी तुलसीदास कहते भी हैं कि राम दुआरो तुम रखवारे होत न आज्ञा बिन पैसारे यानी हनुमान के बिना आप प्रभु राम के दर्शन नहीं कर सकते। 
भगवान विष्णु से भगवान शिव को मिला दास्य का वरदान 
देवताओं में भगवान शिव के बाद हनुमान जी ही एक ऐसे देवता हैं, जो अपने भक्तों पर बहुत जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं। सच्चे मन से की गई पूजा कभी बेकार नहीं जाती। चैत्र युग में भगवान हनुमान जी के दो जन्म तिथि के बारे में वर्णन किया गया है उनकी माता अंजनी शिव जी की बहुत बड़ी भक्त थी उन्होंने घोर तपस्या करके यह वरदान मांगा था कि वह शिव जी को अपने पुत्र के रूप में पाना चाहती है और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी ने हनुमान जी का रूप लेकर चैत्र शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को जन्म लिया। भगवान विष्णु से भगवान शिव को दास्य का वरदान प्राप्त हुआ था. हनुमान उनके 11वें रुद्र अवतार हैं। इस रूप में भगवान शिव ने राम की सेवा भी की और रावण के वध में उनकी मदद भी की थी। कहा तो यह भी जाता है कि वह अभी भी पृथ्वी पर संभव तौर पर जीवित है और वह लोगों के दुख और दर्द को मिटाते हैं क्योंकि कहा जाता है कि कलयुग में कोई भी भगवान का अवतार पृथ्वी पर जीवित नहीं रहता तो इसलिए शिव जी ने अपना इस रूद्र अवतार एक वानर के तौर पर जन्म इसलिए लिया था ताकि वह लोगों की सहायता कर सकें। 
रामचरित मानस अपने आप में हनुमान खुद ही हैं 
तुलसीदास जी का रामायण हनुमान जी का मानस है। हनुमान जी अगर किसी को सजा भी देते हैं तो उसमें भी सात्विक भावना होती है। जब वो लंकिनी को मुक्का मारते हैं। तुलसीदास जी ने लिखा भी है कि पुनि सँभारि उठी सो लंका । जोरि पानि कर बिनय ससंका। तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता। यानी लंकिनी कहती है कि मेरे बड़े पुण्य हैं, जो मैं श्रीरामचन्द्रजी के दूत (आप) को नेत्रों से देख पायी। ऐसे हैं हनुमान की उनके सजा देने पर भी लोग खुश हो जाते हैं। वो किसी के भी शत्रु नहीं है। हनुमान से ज्यादा आपको कोई सत्यसंग दे ही नहीं सकता। रामचरित मानस अपने आप में हनुमान खुद ही हैं। कलम तुलसीदास के थे लेकिन विचार हनुमान के थे। 
जहां भी हनुमान होंगे वहां आपको अपने आप प्रभु राम के दर्शन हो जाएंगे 
सुंदर नाम हनुमान का नहीं श्री राम का है। रामचरित मानस में आप पाएंगे कि हनुमान ने जो कुछ भी करत हैं केवल और केवल श्रीराम के लिए। जब राम पूछते हैं कि आपने कैसे लंका जलाई तो जवाब में हनुमान कहते हैं कि साखामग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई। नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा। सो सब तव प्रताप रघुराई नाथ न कछू मोरि प्रभुताई। अर्थात, मैं तो साखामृग (बंदर) हूँ, इस डाल से उस डाल पर जा सकता हूँ। अगर समुद्र लाँघकर लंका जलाई और राक्षसों का वधकर अशोकवाटिका जलाई तो इसमें मेरी कोई बड़ाई नहीं है। यह सब आपके प्रताप का फल है प्रभु। जिसके जवाब में प्रभु राम कहते हैं- सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी। प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा। हे हनुमान्‌! तुम्हारे समान मेरा उपकारी देवता, मनुष्य अथवा मुनि कोई भी शरीरधारी नहीं है। मैं प्रत्युपकार (बदले में उपकार) तो क्या करू? फिर हनुमान श्री राम के चरणों में झुक जाते हैं। प्रभु कर पंकज कपि के सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा। राम और रावण में केवल और केवल मर्यादा का अंतर था। रावण के पास सबकुछ था सोने की लंका, अमरतत्व, बल, वहीं प्रभु राम अपने राज से ही जंगलों में वनवास झेल रहे थे। सैनिकों के रूप में वानरों की सेना थी। फिर भी उन्होंने रावण को परास्त किया। हनुमान यही सिखाते हैं कि ऐसी कोई ऊंचाई नहीं है जिससे आप नीचे नहीं गिर सकते हैं। इससे बेहतर है कि आप श्री राम के चरणों में गिरे। जिससे वो फिर आपको कहीं और गिरने नहीं देंगे। इसलिए हनुमान ने अपने दिल में श्री राम को बसा रखा है। जहां भी हनुमान होंगे वहां आपको अपने आप प्रभु राम के दर्शन हो जाएंगे। 

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