राजस्थान विधानसभा चुनाव को देखते हुए दो नेताओं पर सबकी नजर है। एक कांग्रेस के अशोक गहलोत है जो वर्तमान में राज्य के मुख्यमंत्री हैं और एक भाजपा की वसुंधरा राजे हैं जो राजस्थान में दो बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। पिछले 20 वर्षों के इतिहास को देखें तो इन्हीं दोनों के इर्द-गिर्द राज्य की राजनीति घूमती रही है। हालांकि, 2023 का विधानसभा चुनाव इन दोनों नेताओं के लिए किसी बड़ी परीक्षा से काम नहीं है और अगर हम दूसरे शब्दों में कहें तो शायद इन दोनों नेताओं के लिए यह आखरी सियासी दांव भी होगा। दोनों नेताओं को पार्टी के भीतर भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है और वर्तमान में इन दोनों के समक्ष पार्टी नेतृत्व के फैसले को भी स्वीकार करने की एक बड़ी चुनौती है।
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सबसे पहले बात वसुंधरा राजे की करें तो 2018 के विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद कहीं ना कहीं वह पार्टी में हाशिए पर जाती दिखीं। जब भाजपा ने सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष बनाया तब भी वसुंधरा राजे नाराज हुई थीं। वसुंधरा राजे के विरोधी गुट को प्रदेश अध्यक्ष कि जिम्मेदारी सौंप कर भाजपा ने भी कोई बड़ा संदेश देने की कोशिश की। हालांकि पार्टी का यह दांव कामयाब नहीं हो सका। फिलहाल राजस्थान में वसुंधरा के भविष्य पर अटकलें का दौर जारी है। हालांकि, वसुंधरा राजे को पार्टी ने उनके पारंपरिक सीट झालरापाटन से मैदान में उतार दिया है। लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री का उम्मीदवार नहीं बनाया है। पार्टी सामूहिक नेतृत्व पर जोर दे रही है। हालांकि फिलहाल उन्हें पार्टी की ओर से भरोसे में लिया जा रहा है।
अशोक गहलोत के लिए राजस्थान में पिछले 5 सालों में कई चुनौतियां आई। सत्ता के शीर्ष पर रहने के बावजूद भी उन्होंने पार्टी के भीतर के विरोध का भी सामना किया। सचिन पायलट जैसे नेता लगातार उन्हें चुनौती दे रहे थे। हालांकि, अशोक गहलोत को विधायकों का समर्थन लगातार मिलता रहा। यही कारण है कि पार्टी आलाकमान भी चाह कर भी कुछ बड़े कदम नहीं उठा सका। वर्तमान में देखें तो पार्टी ने सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच के मनमुटाव को खत्म करने की कोशिश की। इसी से जुड़े एक सवाल पर अशोक गहलोत ने कहा कि उन्होंने पायलट पक्ष के किसी भी उम्मीदवार का विरोध नहीं किया। हालांकि अशोक गहलोत के तीन करीबी नेताओं को अभी भी आलाकमान ने टिकट से दूर रखा है। ये तीन नाम शांति धारीवाल, महेश जोशी और धर्मेंद्र राठौर के हैं। राजस्थान में पिछले तीन-चार सालों के सियासत में इन तीनों नाम की चर्चा खूब रही है। गहलोत हर हाल में राजस्थान में सत्ता की कमान अपने हाथ में रखना चाहते हैं। हालांकि इस बार कांग्रेस की ओर से भी उन्हें मुख्यमंत्री का उम्मीदवार नहीं बनाया गया है।
गहलोत और राजे में यह भी समानता है कि पिछले पांच वर्षों में उन्होंने अपने-अपने आलाकमानों की नापसंदगी को किस तरह दृढ़ता से झेला है। यह दोनों नेता भले ही सियासी विरोधी हैं, लेकिन इनके साथ होने के भी खूब चर्चे होते हैं। याद करिए कुछ दिन पहले अशोक गहलोत ने कहा था कि वसुंधरा राजे की ही वजह से उनकी सरकार बच पाई थी। दूसरी ओर देखे तो सचिन पायलट ने पिछले दिनों एक विरोध प्रदर्शन किया था। उन्होंने अशोक गहलोत की ही सरकार को घेरते हुए मांग की थी कि वसुंधरा राजे के कार्यकाल के दौरान हुए भ्रष्टाचार की जांच हो। सचिन पायलट ने गहलोत पर वसुंधरा की मदद करने का भी आरोप लगाया था। जब वसुंधरा राजे को टिकट मिलने में देरी हुई तो अशोक गहलोत ने कहा मेरी वजह से वसुंधरा राजे को सजा नहीं मिलनी चाहिए। गहलोत कि बयान के बाद राजस्थान की राजनीति में एक बार फिर से नए पुराने अफसाने ने जोर पकड़ लिया।
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फिलहाल देखे तो राजस्थान की चुनावी गलियारों में वादों की भरमार है। लेकिन इन दोनों ने नेता की भी लगातार चर्चा बनी रहती है। फैसला जनता के हाथों में है। यही तो प्रजातंत्र है।