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क्या था आत्म-सम्मान आंदोलन जिससे निकली तमिलनाडु की पार्टियां, DMK का धर्म-जाति-विरोधी इतिहास

तमिलनाडु की सत्तारूढ़ पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) की जड़ें ईवी रामास्वामी ‘पेरियार’ द्वारा शुरू किए गए स्वाभिमान आंदोलन से जुड़ी हैं। 20वीं सदी के शुरुआती आंदोलन ने जाति और धर्म के विरोध का समर्थन किया और खुद को सामाजिक बुराइयों के खिलाफ एक तर्कवादी आंदोलन के रूप में स्थापित किया। वर्षों से इन आदर्शों ने राज्य की राजनीति को प्रभावित किया है, जिसमें आंदोलन से निकले द्रमुक और अन्नाद्रमुक दोनों शामिल हैं। 

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क्या था आत्म-सम्मान आंदोलन जिससे निकली तमिलनाडु की पार्टियां
आत्मसम्मान आंदोलन (1925) के संस्थापक पेरियार अपने दृष्टिकोण में जाति और धर्म के घोर विरोधी थे। उन्होंने जाति और लिंग से संबंधित प्रमुख सामाजिक सुधारों की वकालत की और तमिल राष्ट्र की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान पर जोर देते हुए हिंदी के वर्चस्व का विरोध किया। 1938 में पेरियार की जस्टिस पार्टी और आत्म-सम्मान आंदोलन एक साथ आये। 1944 में नये संगठन का नाम द्रविड़ कषगम रखा गया। डीके ब्राह्मण विरोधी, कांग्रेस विरोधी और आर्य विरोधी थे। उन्होंने एक स्वतंत्र द्रविड़ राष्ट्र के लिए आंदोलन चलाया। हालाँकि, लोकप्रिय समर्थन की कमी के कारण यह विशेष मांग धीरे-धीरे कम होती गई। आज़ादी के बाद पेरियार ने चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया। 1949 में पेरियार के सबसे करीबी सहयोगियों में से एक सी एन अन्नादुरई, वैचारिक मतभेदों के कारण उनसे अलग हो गए। अन्नादुरई की डीएमके चुनावी प्रक्रिया में शामिल हुई। पार्टी के मंच सामाजिक लोकतंत्र और तमिल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद थे। 1969 में अन्नादुराई की मृत्यु के बाद एम करुणानिधि ने डीएमके की कमान संभाली। 1972 में उनके और अभिनेता-राजनेता एम जी रामचन्द्रन के बीच मतभेद के कारण पार्टी में विभाजन हो गया। एमजीआर ने अपने प्रशंसकों के संगठन को संगठन की आधारशिला बनाकर अन्नाद्रमुक का गठन किया। 1977 में एमजीआर सत्ता में आए और 1987 में अपनी मृत्यु तक अपराजित रहे। उन्होंने पार्टी की विचारधारा के रूप में कल्याणवाद को चुनकर डीके के मूल तर्कवादी और ब्राह्मण विरोधी एजेंडे को कुछ हद तक कमजोर कर दिया।

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हिंदू धर्म और जाति पर पेरियार के विचार?
इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी पुस्तक ‘मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया’ में लिखा है कि तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में यह ब्राह्मण ही थे जिन्होंने ब्रिटिश शासन का शुरुआती फायदा उठाया और नए शासकों की शिक्षक, वकील, क्लर्क और सिविल सेवक, डॉक्टर के रूप में सेवा करने के लिए अंग्रेजी सीखी। उभरती हुई कांग्रेस पार्टी में भी उनका अच्छा प्रतिनिधित्व था और उन्हें पारंपरिक रूप से समाज में उच्च सामाजिक दर्जा प्राप्त था। गुहा ने लिखा कि चाहे संयोगवश या जानबूझकर, राज की नीतियों ने उन्हें आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से भी प्रभावी बना दिया। यह जीवन के सभी क्षेत्रों में ब्राह्मण आधिपत्य का खतरा था जो जोतिराव फुले और बी आर अंबेडकर की सक्रियता के पीछे छिपा था। दक्षिण भारत में उनके समकक्ष ई वी रामास्वामी नामक एक उल्लेखनीय विचारक आयोजक थे। अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से पेरियार ने अपने मूल विश्वासों का प्रचार किया, जो समाज के कुछ वर्गों को हाशिए पर धकेलने वाली हिंदू धार्मिक प्रथाओं की तीखी आलोचना करते थे। डॉ. कार्तिक राम मनोहरन के लेख ‘फ्रीडम फ्रॉम गॉड: पेरियार एंड रिलिजन’ के अनुसार, शुरुआत में पेरियार ने नास्तिकता और समाजवाद की वकालत करने वाले प्रमुख कार्यों के अनुवाद प्रकाशित किए, जैसे कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स की ‘द कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’, भगत सिंह की ‘क्यों’ मैं नास्तिक हूं’, बर्ट्रेंड रसेल की ‘मैं ईसाई क्यों नहीं हूं’। गुहा की किताब में पेरियार के कुछ लेख और भाषण भी शामिल हैं। ‘एशिया का सुकरात’ कहे जाने वाले पेरियार का जन्म 1879 में एक धार्मिक हिंदू परिवार में हुआ था। इसके बावजूद, ताउम्र उन्‍होंने धर्म का विरोध किया। हिंदू धर्म की कुरीतियों पर इतनी मुखरता से अपनी बात रखी कि बहुत से लोगों को यह उनकी ‘आस्‍था पर प्रहार’ लगा।
गांधी जी के थे शिष्य बाद में बने उनके आलोचक
पेरियार महात्मा गांधी के सिद्धांतों से प्रभावित होकर कांग्रेस में शामिल हुए थे। इसी दौरान उन्होंने 1924 में केरल में हुए वाइकोम सत्याग्रह में अहम भूमिका निभाई। लेकिन बाद में वो गांधी के प्रमुख आलोचकों में से एक थे। मोहम्‍मद अली जिन्‍ना और डॉ बीआर अंबेडकर के अलावा, पेरियार ही वो तीसरी बड़ी शख्सियत रहे जिन्‍होंने खुलकर महात्‍मा गांधी का विरोध किया। जब गांधी की हत्‍या हुई तो पेरियार बेहद दुखी थी और भारत का नाम ‘गांधी देश’ रखने की मांग की थी। लेकिन कुछ समय बाद ही, उन्‍होंने गांधी को भला-बुरा कहना शुरू कर दिया था। दिसंबर 1973 में दिए अपने आखिरी भाषण में भी पेरियार ने कहा था, “हम गांधी का संहार करते, उससे पहले ब्राह्मणों ने हमारा काम कर दिया।” 
देवी-देवताओं से नफरत करते थे पेरियार?
पेरियार द्रविड़ आंदोलन के बड़े नायकों में से एक थे इसमें कोई शक नहीं। सार्वजनिक जीवन में उन्होंने कई ऐसे काम किए जिनका खास उद्देश्य था। पेरियार की राजनीति को उत्तर भारत के संदर्भ से देखेंगे तो पेरियार के कई ऐसे काम हैं जो हमें आपत्तिजनक लग सकते हैं क्योंकि जिनके लिए भी हिन्दू देवी देवता अराध्य हैं उन्हें पेरियार की राजनीति ठीक नहीं लगेगी और खुद पेरियार के लोगों ने आखिरी दौर में उनका साथ छोड़ दिया था। 

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