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कई राजनीतिक पार्टियां हिंदुत्व को मुद्दा बनाकर राजनीति करती हैं लेकिन उन्होंने कभी भी देश के हिंदू मठों और मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने की पहल नहीं की। सवाल उठता है कि केवल मठ मंदिर सरकार के कंट्रोल में क्यों हैं? मस्जिद और चर्च सरकार के कंट्रोल में क्यों नहीं हैं? मजार और दरगाह सरकार के कंट्रोल में क्यों नहीं हैं? सवाल उठता है कि आखिर एक देश एक धर्मस्थल संहिता कब बनेगी? देखा जाये तो मठों और मंदिरों पर नियंत्रण के लिए तमाम राज्य सरकारों ने 35 कानून बनाये हुए हैं लेकिन चर्चों, मस्जिदों और दरगाहों पर नियंत्रण के लिए एक भी कानून नहीं है। हमारा संविधान धर्मनिरपेक्षता की बात कहता है लेकिन सिर्फ एक धर्म के उपासना स्थलों पर सरकारी नियंत्रण कौन-सी धर्मनिरपेक्षता है?
हम आपको बता दें कि भारत के पीआईएल मैन के रूप में विख्यात सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने देश के सभी मठों और मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने की मांग संबंधी एक जनहित याचिका उच्चतम न्यायालय में दाखिल की हुई है। अदालत ने इस याचिका पर केंद्र और सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया है लेकिन अभी तक किसी ने जवाब दाखिल नहीं किया। सवाल उठता है कि मठों-मंदिरों की एक लाख करोड़ रुपए की संपत्ति सरकारें क्यों नहीं छोड़ना चाहतीं? अदालत ने इस मामले पर सुनवाई को दो महीने के लिए स्थगित कर दिया है इसलिए जरूरत इस बात की है कि समाज इस संबंध में जागरूक हो और मठों-मंदिरों की संपत्तियों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने के लिए राजनीतिक दलों पर दबाव बनाये।
इस मुद्दे पर अश्विनी उपाध्याय ने उदाहरण देते हुए कहा कि जब मुंबई में सिद्धि विनायक मंदिर सरकार के नियंत्रण में है तो हाजी अली की दरगाह पर सरकारी नियंत्रण क्यों नहीं है? उन्होंने कहा कि जब मंदिरों के चढ़ावा सरकारी खजाने में जाता है तो मस्जिदों, दरगाहों और चर्चों में आने वाला दान सरकारी खजाने में क्यों नहीं जाता?
हम आपको यह भी बता दें कि मठों-मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने के लिए साधु-संतों के अभियान को पूर्व में कामयाबी मिल भी चुकी है। उत्तराखण्ड में जिस तरह से भाजपा सरकार ने देवस्थानम बोर्ड को भंग करने की मांग को मान लिया था उससे संतों को उम्मीद है कि लोकसभा चुनावों से पहले मठों-मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने को लेकर मोदी सरकार कोई बड़ा फैसला ले सकती है। माना यह भी जा रहा है कि संघ परिवार ने अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण का अभियान सफल होने के बाद अब मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने का बीड़ा उठाया है इसलिए इस अभियान से आम जनमानस को जोड़ा जा रहा है।
हिंदू संतों का कहना है कि सरकारें केवल मंदिरों का अधिग्रहण करती हैं, मस्जिद या चर्च का नहीं। संतों का यह भी कहना है कि यदि सरकार मंदिर को जनता की संपत्ति समझती है तो पुजारियों को वेतन क्यों नहीं देती? संतों का यह भी कहना है कि यदि मस्जिदें मुस्लिमों की निजी संपत्ति हैं, तो मौलवियों को सरकारी खजाने से वेतन क्यों दिया जाता है? संतगण साल 2014 में आये सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का हवाला भी दे रहे हैं जिसमें अदालत ने तमिलनाडु के नटराज मंदिर को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने वाले आदेश में कहा था कि मंदिरों का संचालन और व्यवस्था भक्तों का काम है सरकारों का नहीं।