आजादी के बाद से लेकर पाकिस्तान ने भारत से कई बार लड़ाईयां लड़ी और हर बार उसे युद्ध भूमि में हार का मुंह देखना पड़ा। अब पड़ोसी मुल्क को लगता है अपनी भूल का अहसास होने लगा है। भारतीय जवानों के हाथों कई बार पिट चुकी पाकिस्तानी सेना अब अपने कलम के सिपाहियों के माध्यम से भारत को इशारे कर रही है। पाकिस्तानी सेना के करीबी माने जाने पत्रकार शहजाद चौधरी ने अपने एक लेख में भारत और पाकिस्तान की दोस्ती की जमकर वकालत की है। इतना ही नहीं पाकिस्तान के मशहूर रक्षा विशेषज्ञ वजाहत खान ने भी शहजाद चौधरी के इस लेख को भारत के साथ शांति के लिए सैन्य समर्थक आवाज करार दिया है।
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भारत-पाकिस्तान को छोड़ना होगा आपसी बैर
अपने लेख में शहजाद चौधरी ने कश्मीर मुद्दे का जिक्र करते हुए कहा कि भारत को लगता है कि उसने अपने संविधान में उन धाराओं को संशोधित और निरस्त करके पहले ही कश्मीर का समाधान कर लिया है, जिन्होंने इसकी विशेष स्थिति को बरकरार रखा था। पाकिस्तान ऐसे मुद्दे पर इस तरह के एकतरफा विधायी हमले को खारिज करता है जो स्वाभाविक रूप से द्विपक्षीय है और संयुक्त राष्ट्र द्वारा मान्यता प्राप्त विवादों की सूची में जीवित है, जिस पर दोनों देशों के हस्ताक्षरकर्ता हैं। पाकिस्तानी लेखक अपने लेख में कहते हैं कि पाकिस्तान और भारत को आपसी बैर छोड़ना होगा। इसमें सबसे पहले कश्मीर आता है। कश्मीर सबसे अधिक असाध्य और ठोस मुद्दा है।
दोनों पड़ोसियों के बीच व्यापार से हो सकता है सुधार
दशकों के बाद ऐसा हुआ है कि भारत ने पाकिस्तान पर दबाव डाला है, क्योंकि पाकिस्तान राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक उथल-पुथल से जूझ रहा है। वर्षों के कुशासन ने पाकिस्तान को एक विफल अर्थव्यवस्था और एक उजाड़ समाज तक पहुंचा दिया है। इन सूचकांकों के साथ मोदी और भारत को लगता है कि किसी पुराने दुश्मन को मदद का हाथ देना नासमझी है। दोनों पड़ोसियों के बीच व्यापार से सीमा के दोनों ओर लाखों लोगों की स्थिति में तेजी से सुधार हो सकता है।
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दो परमाणु शक्तियां क्लासिक गेमप्ले में बंधक बने हुए
शहजाद ने कहा कि भारत और पाकिस्तान सार्क, एससीओ जैसे मल्टीनेशनल संगठनों में शामिल हैं। दो अरब लोगों के ये दोनों घर आपस में जुड़ना चाहते हैं। हालांकि, इन देशों के लोग दो परमाणु शक्तियों भारत और पाकिस्तान की क्लासिक गेमप्ले में बंधक बने हुए हैं। ये दोनों देश एससीओ और आसियान जैसी क्षेत्रीय व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार हैं, लेकिन न तो सार्क को पुनर्जीवित करेंगे और न ही दक्षिण एशिया के भीतर एक संपन्न आर्थिक क्षेत्र विकसित करेंगे।